सूत्र १.१: प्रत्येक मनुष्य स्वभावसे ही सुख की खोजमें रहता है।
विज्ञानमें यह सिध्द हो चुका है कि प्राणी और वनस्पति ये दोनो में भावना और बुध्दि दिखायी देती है। किंतु, मनुष्यप्राणीमें भावना तथा बुध्दि परमोच्च स्तरपर दिखायी देती है। कम से कम मनुष्यप्राणी तो यही धारणा रखते है और केवल मनुष्यप्राणी ही यह ग्रंथ को पढनेवाले है। मनुष्येतर प्राणी उपजत भावना में रहकर भूक लगने पर अन्न खोजते और थक जाने पर विश्राम करते है। परंतु, मनुष्यप्राणी उपजत जीवनावस्था के परे अनुभवों का संचय करते है, निरीक्षण के उपरान्त निर्णय करते है और विचार-चर्चा के साथ कृतिक्रम बनाते है। जब इच्छित वस्तु इच्छित मात्रा से कम उपलब्ध होती है तब मनुष्यप्राणी उसके लिए प्रयत्न करता है। और, इच्छित उपलब्धि होने पर सुखी होता है।
यह बात सोचनेलायक है कि मनुष्यप्राणी जरुरते खोजता है या जरुरते पूरी होने से मिलनेवाले आनंद को खोजता है। आगे दिए हुए विधानोसे यह स्पष्ट होता है की मनुष्य हमेशा आनंद ही की खोज में रहता है, बल्कि गलती से वह सोचता है कि आनंद जरुरते पूरी होने से मिलेगा। जीवन की जरुरते पाते समय, मनुष्य अन्य जरुरतों की भी इच्छा रखता है।
ये अन्य जरुरते प्रायः मानसिक होती है। सच देखा जाए तो, मनुष्य वर्तमान जरुरतों को पाने के बाद उन्हें अधिक मात्रा में पाना चाहता है। मनुष्यको उस चीजों में दिलचस्पी रहती है जो चीजें पास में नहीं है। कुछ भी हो, वर्तमान में प्राप्त वस्तुओं से मनुष्य कभी भी पूरी तरह से संतुष्ट नहीं होता। वह पायी हुई चीजे अधिक मात्रा में या नई चीजें पाने का प्रयत्न करते रहता है। बहुतांश लोगों में यह स्रोत जीवन के अंततक चलता रहता है।
जैसे की, मेरे बचपन में मैने बहुत पढाई करके मेरी आर्थिक स्थिती को सुधारने के लिए परिश्रम किया। उसीके साथ संस्कृत और योग का अध्ययन भी किया। ऐसी पढ़ाई करनी पड़ी जिससे अधिकांश गुण पाकर उच्चस्तर के महाविद्यालय में प्रवेश मिले और अच्छा वेतन मिल जाय। मेरे माता-पिता का परिवार पैसे की गरीबी से अच्छा खाना, अच्छा कपडा और रहने के लिए अच्छा घर न पा सका, बल्कि बहुत ही कठिनाईयोंसे गुजरा। स्कूल में अच्छे गुण पाकर मैं आनंदित होता था। अच्छे गुणों के कारण मुझे उॅंचे नामवाले इंजिनिअरिंग कॉलेज में प्रवेश मिला। इसके कारण फिर आनंद का अनुभव हुआ। इस इंजिनिअरिंग की पढाई के पश्चात भारत तथा अन्य देशोमें उच्च वेतनकी नौकरी मिली। इन सब घटनाओंके कारण मुझे और मेरे परिवार को खुशी मिली। इस तरह बचपन में अन्न-वस्त्र-निवारा की जरुरत का नतिजा मान-सन्मान, देश-विदेशो में प्रवास और अंतमें भूतकाल में छुटा हुआ योगाभ्यास, आरोग्याभ्यास और संगीताभ्यास इनमें हुआ। अर्थात, अभी ये सब चीजें मै अपने बच्चीयों के लिए भी चाहता हूॅ और ऐसा होने से मुझे आनंद होगा।
प्राचीन वेदकाल में (दो हजार वर्षपूर्व) भारतीय लोग यज्ञयाग करके आहुती देकर देवताओं को प्रसन्न करते थे और अपनी इच्छित वस्तुओं के लिए प्रार्थना करते थे। जैसे की, रुद्रनामक यज्ञयाग में चमक नामक विभाग होता है। उसमें रुद्रदेवता से सभी प्रकार के वस्तुओं के लिए याचना की जाती है, जैसे की धनधान्य, कपडालत्ता, घर, खेत, स्त्रिया, सोना, गायबैल, इत्यादि। ऐसी प्रार्थनाओं में भौतिक तथा पारमार्थिक दोनों तरह के वस्तुओकी मॉंग की जाती है। (यजुर्वेद, तैत्तिरीय संहिता ४.५, ४.७)
कोई कोई देशो के राष्ट्रगीतो में देशप्रेम और देशाभिमान इनके साथ देश के योगक्षेम के लिए प्रार्थना का समावेश होता है।
धार्मिक लोक संकट आनेपर तीर्थयात्रा करके आशीर्वाद मॉंगते है। ये लोग प्राप्त वस्तुओं के लिए भगवान को धन्यवाद देते है। वे आर्थिक तथा पारमार्थिक हित के लिए पूजापाठ करते है। (श्री सत्यनारायण व्रतपूजा)
उपरोक्त विधानों से यह पूर्णतः सिध्द होता है कि मनुष्य हमेशा सुख की इच्छा करता है। इस सुख में वर्तमान दुःख का निवारण तथा भौतिक और आध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ती समाविष्ट होती है। सुख की खोज पूर्णतः नैसर्गिक, उपजत और निरंतर रहती है। संन्यस्त मनुष्य में आनंद, ब्रह्मानंद, सामाजिक उन्नती और ज्ञान वगैरे की इच्छा होती है। सुख की खोज इतनी नैसर्गिक होती है की सभी स्थलकाल में वह पूर्णतः निःसंदेह मानी जाती है।
अमरिका के स्वातंत्र्यविधान में लिखा है, ”हम ये सत्य निःसंदेह मानते है, की सर्व मनुष्यप्राणी समान है और उन सबको स्वभाव से ही जीने का, स्वतंत्रता का और सुख की खोज का अधिकार प्राप्त होता है“।
हम यह देखेंगे (सूत्र १४.१ ) की यही सुख की खोज मनुष्य को दुःखानुभूती में ढकेलते रहती है। सांख्ययोग का तत्त्वज्ञान इसी मूलतत्त्व पर आधारित है की मनुष्य के जीवन में प्रारंभ से लेकर अंत तक दुःख का अनुभव होता है।
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सांख्यकारिका 1.1
दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ।
अर्थ: आध्यात्मिक, अधिभौतिक और अधिदैविक ऐसे तीन प्रकार के दुःख का वर्षाव होने के कारण दुःख का पूर्णतः अंत करने की जिज्ञासा उत्पन्न होती है।
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उपरोक्त विधान का सत्य पूर्णतः जानने पर मनुष्य सुख की अभिलाषा छोडकर (भोग) दुःखनिवृत्ती के मार्ग पर चल पडता है (अपवर्ग) । पृथ्वीपर हुए जन्म (प्रकृती) का यही प्रयोजन दिखता है की मनुष्य सुख और दुःख दोनों का अनुभव करे।
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पातज्जल योग सूत्र 2.18
प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्।
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अनुबन्ध: मनुष्य सदासर्वदा सुख की खोज में रहता है यह विधान की पूर्णतः पुष्टी करने के पश्चात अगला सूत्र manav जीवनसंस्था का उपयोग करके सुख कैसे पाता है यह दिखाता है।
सूत्र १.२ : मानसिक अवस्थानुसार मानव के सुख की खोज शरीर, मन अथवा इंद्रियातीत अवस्था के द्वारा होती है।
सुख की अभिलाषा मानव में स्वाभाविक होती है। यह अभिलाषा निश्चित स्वरुप से मन में ही वास करती है। मानव शब्द ‘मन’ शब्द से आता है। मानव का अर्थ जिस प्राणी का मन उच्चतम होता है।
सुख की अभिलाषा कुछ आशाओं से जुड़ी होती है। जब आशा पूर्ण होती है, तब सुख का अनुभव होता है। जब आशा बिलकुल ही पूर्ण नहीं होती तब दुःख का अनुभव होता है। यह आशा पूर्ण होने के लिए शारीरिक तथा मानसिक अंगों की जरुरत पड़ती है। शारीरिक अंगों में ऑंखे, कान, नाक, त्वचा, जीभ, इत्यादियों का समावेश होता है। मानसिक अंगों में चित्त, संकल्पविकल्प करनेवाला मानस, स्मृती, बुध्दि तथा अहंकार इनका समावेश होता है।
यह बात समझने के लिए हम एक व्यक्ती की बात करते हैं जो अपने मित्रों के साथ पहाड़ी पर सहल के लिए जाना चाहता है। इस सहल में ये सब मित्र पहाड़ी चढ़ने का, खाने का, गानेबजाने का, शर्यत करने का, और गाने की स्पर्धा करने का आनंद लुटना चाहते हैं। इस सहल से आनंद पाने के लिए अच्छी शारीरिक शक्ती, खाने की काफी भूक, अच्छी स्मरणशक्ती इत्यादी की जरुरत पड़ेगी। हर मित्र को अलग अलग कृती में आनंद मिलेगा। इसलिए हर एक को अलग अलग तरह की शक्ती और युक्ती जरुर होगी।
अनुबंध: अगले सूत्र में हम देखेंगे की शारीरिक अंगों से सुख पाने के लिए शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार का स्वास्थ्य आवश्यक होता है।
सूत्र 1.3: शारीरिक इंद्रियों द्वारा प्राप्त सुख शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्यों पर निर्भर होता है।
जब शारीरिक अवयवों का उपयोग किया जाता है तब उनका स्वास्थ्य योग्य होना आवश्यक है। जैसे की सूत्र १.१ में पहाड़ी पर चढ़ने का आनंद लेने के लिए पैर और श्वसनसंस्था अच्छी होने चाहिए। बहुत समय तक सामाजिक कार्यकर्ता की तबियत खराब होने से लोगों को उसकी सेवा करनी पड़ती है। इसीलिए कहते है ”शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्“।
शरीरद्वारा प्राप्त आनंद यद्यपि श्रवणेंद्रिय, घ्राणेंद्रिय, श्रोत्र, त्वचा, रसना आदिद्वारा होता है, तदपि सभी संवेदना मन को पहुॅंचती है। मानसिक अवस्था अच्छी न होने से आनंद प्राप्ती में विघ्न आता है। जैसे अच्छा खाने की मजा लेनेवाले व्यक्ती को बुरी खबर मिलने से वह आनंद मिलना बंद हो जाता है। वैसे ही धावने की शर्यत में भाग लेनेवाले की मनःस्थिती अच्छी न होने से धावने में बाधा आती है। इसीका फायदा उठाकर कभी कभी प्रतिस्पर्धी गट एक दूसरे का मनोबल कम करने की चेष्टा करते हैं।
इस तरह शरीरद्वारा आनंद करने के लिए शरीर और मन दोनों ही स्वस्थ होने चाहिए।
अनुबन्ध: केवल मन के द्वारा प्राप्त आनंद की क्या स्थिती है? यह अगले सूत्र में देखेंगे।
सूत्र 1.4: केवल मन के द्वारा प्राप्त सुख केवल मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर होता है।
मन के स्वास्थ्य की आवश्यकता तो अनिवार्य है। परंतु, सोचने की बात यह है की मनोद्वारा प्राप्त आनंद के लिए केवल मनःस्वास्थ्य की ही आवश्यकता होती है। मन पूर्णतः स्वस्थ हो तो किसी भी शारीरिक अवस्था में आनंद टिकता है। जैसे की श्री रामकृष्ण परमहंसजी को गले का कर्करोग (कॅन्सर) होने के बावजूद उनके आनंद में कुछ कमी नहीं हुई। वैसे ही दक्षिण आफ्रिका के नेल्सन मंडेला 25 वर्ष तक तुरुंगवास में भयानक परिस्थिती में रहे, फिर भी उसके बाद उन्होंने राष्ट्रपती की भूमिका निभायी। अमानवी ब्रिटिश साम्राज्य ने स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी को अत्याचार से पीडित करने के बावजूद उन्होंने तुरुंग के भित्ती पर उत्तम कविताएॅं लिखी। लोकमान्य टिळकजी ने प्रसिध्द ग्रंथ गीतारहस्य की रचना अंदमान के तुरुंग में की थी।
इस तरह मनोद्वारा प्राप्त आनंद केवल मनःस्वास्थ्य पर निर्भर होता है ।
सूत्र 1.4: केवल मन के द्वारा प्राप्त सुख केवल मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर होता है।
मन के स्वास्थ्य की आवश्यकता तो अनिवार्य है। परंतु, सोचने की बात यह है की मनोद्वारा प्राप्त आनंद के लिए केवल मनःस्वास्थ्य की ही आवश्यकता होती है। मन पूर्णतः स्वस्थ हो तो किसी भी शारीरिक अवस्था में आनंद टिकता है। जैसे की श्री रामकृष्ण परमहंसजी को गले का कर्करोग (कॅन्सर) होने के बावजूद उनके आनंद में कुछ कमी नहीं हुई। वैसे ही दक्षिण आफ्रिका के नेल्सन मंडेला 25 वर्ष तक तुरुंगवास में भयानक परिस्थिती में रहे, फिर भी उसके बाद उन्होंने राष्ट्रपती की भूमिका निभायी। अमानवी ब्रिटिश साम्राज्य ने स्वातंत्र्यवीर सावरकरजी को अत्याचार से पीडित करने के बावजूद उन्होंने तुरुंग के भित्ती पर उत्तम कविताएॅं लिखी। लोकमान्य टिळकजी ने प्रसिध्द ग्रंथ गीतारहस्य की रचना अंदमान के तुरुंग में की थी।
इस तरह मनोद्वारा प्राप्त आनंद केवल मनःस्वास्थ्य पर निर्भर होता है ।
पार्ट 16
-----------स्वामी विवेकानंद - जागतिक, धर्मसभा, शिकागो अमेरिका, 20 सितंबर १८९३, ”आप भारत में चर्च बांधते हो। किंतु उधर धर्म की जरुरत ही नहीं। धर्म तो उधर बहुत है। भारत के लाखो लोगों को रोटी की जरूरत है, पत्थर कीं नहीं। यह उनका अपमान होगी की आप भूके लोगों को धर्म देकर आध्यात्म पढाएंगे।“----- अगले प्रकरण में हम देखेंगे की सुख पाने के लिए मानव ध्येय को बनाता है। शारीरिक सुख पाने के ध्येय होंगे जैसे की घर बनाना और अच्छा भोजन खाना। मानसिक सुख के ध्येय होंगे जैसे की डॉक्टरेट पदवी पाना।
यह तो आसानी से जान सकते है की मानसिक सुख के ध्येय शारीरिक सुख के ध्येयों से श्रेष्ठतर होते है। किंतु जैसे की सूत्र 1.7 में वर्णन किया है, व्यक्ति जब यह समझ जाता है की शरीर या मन के द्वारा प्राप्त सुख मर्यादित तथा अल्पकालीन होता है, तब वह शरीर-मन के पार जाने का आध्याात्मिक ध्येय बनाता है। इस ध्येय की प्राप्ती से दुःख का संपूर्णतः निवारण होता है। इसलिए इस ध्येय को श्रेष्ठतम माना जाता है।
इस ध्येय का अंतिम चरण मोक्ष होता है। ”मोक्ष“ ही सर्वश्रेष्ठ ध्येय समझा जाता है। उसे परम-पुरुषार्थ कहते है।
अनुबन्ध: इस प्रकरण में मानव की शरीर-मन द्वारा सुखप्राप्ती और आध्यात्मिक सुख प्राप्ती इनको सिध्द करने के पश्चात, अगला प्रकरण उस ध्येयप्राप्ती के लिए की जानेवाली कृतीयों का वर्णन करता है।
सूत्र २.१: जीवन तथा सुखप्राप्ती इस प्रवाह में प्रत्येक व्यक्ति अपना व्यक्तिगत ध्येय बनाता है।
प्रत्येक व्यक्ती सुख की खोज जरूर करता है। किंतु हर एक व्यक्ति के खोज का तरीका अलग अलग होता है। सुखप्राप्ती के लिए सर्वप्रथम व्यक्ती मन में एक ध्येय या परिणाम बना लेता है जिसकी प्राप्ती होने से व्यक्ती को सुख मिल जाए। वह ध्येय भौतिक चीज पाने का हो सकता है जैसे मोटारगाडी खरीदना या कुछ मानसिक हो सकता है जैसे किताब लेखन पूरा करना या आध्यात्मिक हो सकता है जैसे विचारशून्य मनोवस्था प्राप्त करना।
ध्येयप्राप्ती मनुष्य के सुखप्राप्ती से पूर्णतः जुड़ी होती है। ध्येयप्राप्ती होने से मनुष्य को सुख मिलता है। तत्पश्चात दूसरे ध्येय की योजना बन जाती है। एकसाथ अनेक ध्येय भी हो सकते है। यह बात सोची जाए की व्यक्ती के एक से जादा ध्येय होंगे तो उसमें से एक की प्रापती होने की और उससे एक की प्राती होने की, और उससे सुखप्राप्ती होने की ज्यादा संभावना रहती है।
ध्येयों के अनेक उदाहरण होते है। जैसे व्यक्ती चाहते हुए भी पैसों के अभाव से मोटारगाडी खरीद नहीं सकता। तब व्यक्ती सोचता है की उच्चतम पदवी हासिल करने से ज्यादा आमदनी होगी और इच्छित वस्तू खरीदना संभव होगा। इसलिए व्यक्ती पदवी-अभ्यास का चुनाव करता है। एक ध्येय प्राप्त होने के पश्चात वह दुसरा ध्येय बनाता है।
पदवी प्राप्ती के बाद नोकरी प्राप्ती का ध्येय। उसके पश्चात अन्य कोई ध्येय। प्रायः ये सब ध्येय शारीरिक तथा मानसिक होते है। कभी कभार व्यक्ती को आध्यात्म में रुची पैदा होती है और वह मनःशांती जैसा आध्यात्मिक ध्येय बनाता है।
अनुबन्ध: ध्येयों के अनुसार ध्येयप्राप्ती के विविध उपाय अगले सूत्र में वर्णन किए हैं।
सूत्र २.२: ध्येयप्राप्ती के लिए व्यक्ती को एक निश्चित कृतिक्रम बनाना पड़ता है। इस कृतिक्रम में इन चीजों का समावेश होता है: कठिनाईयों का निवारण, शिस्त, ध्येयसाधना के लिए उपयुक्त सामुग्री, ध्येय की ओर ले जानेवाली साधना, साधना में स्थिरता और ध्येय की समय समय पर पुनरावृत्ती।
यह बात तो सीधी है की अपने ध्येय तक पहुॅंचने के लिए, की जिससे सुख मिलनेवाला है, व्यक्तिको एक निश्चित मार्ग पर चलना पडेगा। यह मार्ग में अनेक बाते आती है जैसे की: मार्ग की योजना, मार्ग पर चलने के यम-नियम, मार्ग पर चलने के लिए उपयुक्त साधनों का संग्रह इसके पश्चात प्रत्यक्ष मार्ग पर चलने की कृती, और कभी कभी मार्ग की योजना में परिस्थितीके अनुसार फेरबदल।
मार्ग की योजना करने के समय उचित सोचविचार होना चाहिए। इसके पश्चात मार्ग पर चलने का दृढ संकल्प करना चाहिए। मार्ग की योजना में गलती होने से इच्छित ध्येयप्राप्ती न होकर निराशा प्राप्त होगी।
जैसे की, एक व्यक्ती दौडने की शर्यत में पदक पाकर सुखी होना चाहती है। तो उस व्यक्ति को चाहिए मजबूत पैर, मजबूत तथा स्वस्थ श्वसनसंस्था और मन की एकाग्रता। यह व्यक्ती यदि व्यायामशाला में जाकर हाथ मजबूत करने में ज्यादा समय और दौडने में कम समय देती है तो उसकी ध्येयप्राप्ती असंभव है। श्वसनसंस्था को मजबूत करने के अलग अलग उपाय होते है। जैसे की तैरना, दौडना, योगव्यायाम, इत्यादि। उस व्यक्ती को योग्य उपाय चुनना है। इसके पश्चात निश्चित रुप से योजनाबध्द कृतिक्रम बनाना है। और सबसे महत्त्वपूर्ण यह की उस कृतिक्रम का आचरण करना है।
जो ध्येय भूतकाल में प्राप्त नहीं हुआ उसके प्राप्ती के लिए जुट के प्रयत्न करना पडता है। क्योंकी यदि वह ध्येयप्राप्ती आसान होती तो अब तक (भूतकाल में ही) प्राप्त हो चुकी होती। ऐसा जुट के प्रयत्न के लिए शिस्त होना बहुत जरूरी है। हम देखते है की कई व्यक्तीओं को अनेक इच्छाएॅं होती है जो की शिस्त के अभाव से पूरी नहीं होती। शिस्त तो मन का गुणधर्म होता है। इसलिए व्यक्ती को ध्येयप्राप्ती के अनुसार नियम बनाना और उनका पालन करना पड़ता है। कम से कम साधना पूरी तरह से सट जाने तक यह नियम-पालन जारी रखना पड़ता है। जैसे नए पौधे की रक्षा करनी पडती है, जो रक्षा पौधा बडा होकर वृक्ष होने के बाद जरुरी नहीं होती।
आध्यात्मिक ध्येय के लिए मन को बड़ा प्रशिक्षण देना पडता है। इसको तपस कहते है।
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भगवत्गीता - 17,14 17.15, 17.१६
देवद्विजगुरुमाज्ञपूजनं शौचमार्जनम्।
ब्रम्हचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायभसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते।
मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः
भावसंषुध्दिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।।
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कुछ धार्मिक संस्थाओं में नियम बनाकर संस्थासदस्यों को उनका पालन करने का आदेश दिया जाता है। जैसे इस्लाम धर्मियों का रमजान में उपवास और ख्रिस्तधर्मियों का ईस्टर में उपवास।
इस तरह, सब साधनाओं में शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक शिस्त की आवश्यकता होती है।
कोई साधना के लिए उपकरणों की जरुरत पड़ती है। जैसे भागने की शर्यत करनेवाले को अच्छे बूट की जरुर पड़ती है। योगव्यायाम करनेवालों को रबर मैट की जरुरत होती है। इस तरह उपकरणों का संग्रह करना साधना का एक अंग होता है।
मान लों की एक औरत दस मील दौडने की शर्यत के लिए साधना कर रही है। कभी कभी ऐसा समय आता है वह दस मीन प्रतिदिन भाग नहीं सकती। उसको पर्याप्त विश्रांती नहीं मिलती या कुछ दुसरी आपत्ती हो सकती है। ऐसे समय में, उस औरत को ध्येय में बदल करना पड़ेगा। वह पॉंच मील की शर्यत में भाग लेंगी या शर्यत का खयाल कुछ देर के लिए छोड देगी।
कभी कभार वर्तमान ध्येय से अलग ध्येय लेना पड़ता है। जैसे की ध्यानसाधना करनेवाले को यह अनुभव होता है ध्यान करते समय उसके अन्दर क्रोध बढ रहा है। इसलिए उसे ध्यानसाधना छोडकर क्रोधनिर्मूलन तथा शांत मन की साधना करनी पड़ेगी।अभिजात योगपध्दती में ध्यानसाधना के पूर्व चित्त की प्रसन्नता आवश्यक होती है।
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पात॰जलयोगसूत्र 1.33
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातः चित्तप्रसादनम्।
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अनुबन्ध: ध्येय योजना, उसके अंग तथा फेरबदल इनका वर्णन करने के पश्चात अगले सूत्र में ध्येय बनाने के उपयुक्त ऐसे अंग वर्णन किए है।
सूत्र 2.3: व्यक्तिगत ध्येय की योग्यायोग्यता व्यक्तिगत पूर्वपीठिका, सद्यः परिस्थिती, साधना के लिए प्राप्त समय और साधन के साथ प्राप्त विश्रांती, इन बातों पर निर्भर होती है।
व्यक्तिगत ध्येय के विषय में व्यक्ति की पूर्वपीठिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इसमें व्यक्ती की पूर्वसाधना तथा तद्विषयक ज्ञान आते हैं। जैसे की पात॰जलयोगसूत्र जो संस्कृत भाषामे लिखे है, उनका मूल पाठ से अभ्यास करने के लिए संस्कृत भाषा अच्छी तरह से ज्ञात होनी चाहिए, थोडीसी नहीं।
वेदान्तविषयक ग्रंथों में अनुबन्धचतुष्टय नामक चार अनुबंध बताने से ही वह ग्रंथ अधिकृत समझा जाता है। इन चार में एक अनुबन्ध होता है ग्रंथपाठक का पूर्वज्ञान। वैसे ही व्यक्ती की परिस्थिती योग्य होना चाहिए। जैसे की कोई एक पदवीक्रम पूरा करने के लिए शिक्षणसंस्था में प्रवेश लेने लिए पर्याप्त फी की रकम होनी चाहिए। यदि फी का इंतजाम नहीं हो सकता तो उस पदवी का ध्येय बनाना उचित नहीं होगा।
ध्येय को प्रदान करनेवाली साधना को नियमित रुप से समय देना पड़ेगा। जैसे नाटक रचाने के लिए उसकी प्रॅक्टिस करनी पड़ेगी जो पर्याप्त समय के बिना संभव नहीं। उतना समय न होने से नाटक का ध्येय अनुचित होगा।
साधना करने से शरीर और मन थक जाते है। इस स्थिती में पर्याप्त विश्रांती के बिना साधना तथा ध्येयप्राप्ती खंडित हो जाती है। जैसे की किसी महत्वपूर्ण परीक्षा के लिए अभ्यास करनेवाली व्यक्ती विश्रांती के अभाव में परीक्षा के समय बीमार पड़ सकती है।
अनुबन्ध: अगले प्रकरण में लेखक अधियोगपध्दती पर प्रकाश डालता है और अधियोगपध्दती तथा अभिजात योगपध्दती इनकी तुलना करता है।
सूत्र 3.1: अभिजात (क्लासिकल) योगपध्दती से प्राप्त शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य तथा क्षमत्व समाधी और कैवल्य अर्थात् आध्यात्मिक ध्येयप्राप्ती के हेतू होते हैं।
अभिजात पध्दती का उगम उपनिषदो में हुआ है। सुख-दुःखों का जीवनभर बार बार अनुभव होने से तथा दुःखका ज्यादा अनुभव होने से, शाश्वत सुखकी खोज में जीवन का विष्लेशण करते करते अभिजात तत्त्वज्ञज्ञनप्रणालियों का जन्म हुआ। उनमें से एक योगपध्दती एवं योगदर्शन कहलाती है। इस पध्दती को महर्षी पत॰जली ने विख्यात और सर्वमान्य पातंजलयोगदर्शन सूत्रग्रंथ में ग्रथित किया है।
संपूर्ण दुःखनिवृत्ती के लिए व्यक्ति को ध्यानसाधना करके मन की पूर्णतः एकाग्रता साधनी चाहिए। यह स्थिती व्यक्ती को शरीर तथा मन के परे लाकर समाधिस्थिती में डालती है।
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पात॰जलयोगसूत्र- 1.2, 1.३
योगचित्तवृत्तिनिरोधः। तदा द्रष्तुः स्वरुपेऽवस्थानम्।
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समाधिस्थिती में आत्मसाक्षात्कार होता है। इसकी आगे साधना करने से पूर्वजन्मों में संचित संस्कार एवं कर्म इनका ज्ञान होता है। इस कर्म का क्षय करने से योगी को कैवल्य-नामक आत्म-मोक्ष प्राप्त होता है।
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पात॰जलयोगसूत्र - 4.34
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरुपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति।
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अभिजात योगपध्दती में शरीर और मन दोनों का प्रशिक्षण वर्णन किया है। इस प्रशिक्षण से शरीर और मन समाधिप्राप्ती की साधना के योग्य बनते है। इस प्रशिक्षण से शरीर तथा मन व्यावहारिक रुप से संपूर्णतया सक्षम और निरोगी नहीं बनते है। क्योंकी वह उनका उद्देश्य नहीं है।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में अधियोगपध्दती का उद्देश्य तथा विषय वर्णन किया है।
सूत्र ३.२: इसके विपरित, अधियोगपध्दती यह योगसाधना एवं योगाध्यापन की ऐसी पध्दती है जो व्यक्तिगत ध्येयप्राप्ती प्रदान करती है, व्यक्तिगत ध्येय भौतिक हो या आध्यात्मिक।
अभिजात योगपध्दती का ध्येय आध्यात्मिक होता है। किंतु, अधियोगपध्दती का ध्येय व्यक्तिगत होता है। ऐसा व्यक्तिगत ध्येय भौतिक या आध्यात्मिक, या उनका मिश्रण भी हो सकता है।
जैसे की, एक व्यक्ती परीक्षा में उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण होना चाहता है। ऐसे व्यक्ती को अधियोगपध्दती शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य एवं क्षमता के साधन प्रदान करती है। आध्यात्मिकता नहीं सिखाती।
अधियोगपध्दती में ध्येय का चुनाव व्यक्ती स्वयं करती है। परंतु, तत्वज्ञान वर्ग में अभिजात तत्वज्ञान तथा आध्यात्मिकता जरुर पढाई जाती है।
जिस व्यक्ती में एकसाथ अनेक भौतिक ध्येय तथा उच्च आध्यात्मिक ध्येय वर्तमान होते है, ऐसे व्यक्ती का जीवन कठीन बन जाता है। उसको योग्य प्रकार और स्तर का ध्येय बनाना पड़ेगा।
अधियोगपध्दती में अध्ययन एवं साधना, और अध्यापन एवं शिक्षा देना इनका मिश्रण होता है।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में अधियोगपध्दती की साधना पर प्रकाश डाला है।
सूत्र 3.3: अधियोगपध्दती में व्यक्ती के व्यक्तिगत ध्येयप्राप्ती के लिए आवश्यक शारीरिक, मानसिक तथा आध्याात्मिक स्वास्थ्य और क्षमता के साधन दिए जाते है।
अधियोगपध्दती में शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं क्षमता प्राप्त करने की साधना का समावेश जरूर होता है। परंतु इस साधना का स्वरूप एवं उसकी प्रक्रिया व्यक्तिगत ध्येयप्राप्ती के लिए होती है। जैसे की यदि कोई व्यक्ती दौडने की शर्यत में भाग लेता है तब अधियोगपध्दती मुख्यतः दौडने के लिए आवश्यक क्षमता एवं स्वास्थ्य पर ध्यान देती है। यह स्वास्थ्य एवं क्षमता वैज्ञानिक शास्त्रज्ञ के लिए आवश्यक नहीं होती।
व्यक्तिगत ध्येयप्राप्ती के लिए जो क्षमता एवं स्वास्थ्य आवश्यक है, उसको केंद्रस्थान बनाने से अधियोगपध्दती में दिया हुआ मार्ग नितांत आवश्यक बन जाता है। उसका कुछ विकल्प नहीं होता।
स्वास्थ्य और क्षमता के विद्यार्थी को यह जानना चाहिए की उसके ध्येयप्राप्ती के लिए कौनसी और कितनी क्षमता एवं स्वास्थ्य की जरुरत है (सूत्र 2.1)। स्वास्थ्य और क्षमता केवल ध्येयप्राप्ती के साधन है, अंतिम ध्येय नहीं। इसलिए सामान्यतः, दूसरे के स्वास्थ्य और क्षमता से खुद को नहीं नापना चाहिए। जैसे की पूरा दिन योगव्यायाम करने तथा सिखानेवाले योगशिक्षक की क्षमता वैज्ञानिक शास्त्रज्ञ कभी प्राप्त नहीं कर सकता और न हि ऐसा करने की जरुरत है। दुसरे की स्वास्थ्य एवं क्षमता को नापकर खुद को कभीभी कम नहीं समझना चाहिए।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में अधियोगपध्दती में भूतकालीन गलतीयों का सुधार और नूतन साधनाओं का समावेश होता है यह बातें वर्णन की है।
सूत्र 3.4: इसके अलावा अधियोगपध्दती में अभिजातयोगपध्दती में होनेवाली तथा अन्यथा होनेवाली त्रुटियॉं सुधारने का प्रयत्न किया जाता है। अधियोगपध्दती व्यक्तिगत ध्येयप्राप्ती के अनुरुप ज्ञान तथा साधना प्रदान करती है।
अधियोगपध्दती का यह कहना है कि अभिजातपध्दती तथा अन्य आधुनिक पध्दतियों में कुछ अज्ञानमूलक विधियॉं हैं। जैसे की अनेक योगीजन यह सिखाते हैं कि योगसाधना सबेरे करनी चाहिए। इस समय को ब्राह्ममुहूर्त कहते है और इस समय योगसाधना करने में विशेष फल होने का संकेत है। अब इसकी चर्चा हम करेंगे। सर्वप्रथम यह जानना चाहिए की ब्रह्म और मुहूर्त ये दोनों शब्द आध्यात्म से संलग्न हैै। इनका शारीरिक प्राप्ती में कुछ योगदान नहीं। सबेरे योगसाधना का तत्व ऐसा है: सबेरे वातावरण शांत होता है और वातावरणमे ध्वनिलहरी कम मात्रा में रहती है। इसके कारण उच्च स्तर के ध्यानावस्थ योगियों से प्रक्षेपित ध्वनिलहरी साधकों तक पहुॅंचकर उनको प्रभावित करती है।
ब्राह्ममुहूर्त का षारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य एवं क्षमता से कुछ नाता नहीं होता। वास्तविकता में अच्छे विश्राम के पश्चात् शारीरिक, मानसिक तथा मानसिक, साधना ज्यादा अच्छी होती है। विश्राम पूरा न होकर सबेरे साधना करने से नुकसान होता है। इसलिए व्यक्ती को पर्याप्त विश्राम करना चाहिए।
आजकल योगव्यायाम की अनेक पध्दतियॉं प्रचलित हैं और इन पध्दतियों में प्रशिक्षित शिक्षक भी होते हैं। कई योगशालाओमें में योगवर्ग में अनेक विद्यार्थी होते हैं। ऐसे वर्गों में व्यक्ती पर ध्यान नहीं दिया जाता और वर्ग का फायदा अत्यंत कम हो जाता है।
कुछ योगव्यायाम वर्ग में अत्यंत कठीन व्यायाम सिखाएॅं जाते है जो की विद्यार्थी कर नहीं पाते। इससे मन की शांती और एकाग्रता नहीं होती। इसके कारण वह व्यायाम योग-व्यायाम न रहकर कठीन और अपायकारक कसरत हो जाते है।
कुछ योगवर्गों में शाकाहारी रहने की शिक्षा दी जाती है। शाकाहारी रहने से स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और सब कुछ अच्छा होगा ऐसा बताया जाता है। किंतु यह सत्य नहीं है। आरोग्यकारक आहार का वर्णन प्रकरण 6 में किया है।
कुछ योगवर्गों में एक ही नियोजित और निश्चित योगव्यायाम की सूची सिखाई जाती है। अनेक विद्यार्थी यह सूची के व्यायाम कर नहीं पाते। क्षमता और विश्रांती के अभाव में ऐसे निश्चित सूची से नुकसान ही पहुंॅचता है। ऐसे विद्यार्थियों में संधिवात (आरथ्रायटिस) या हृदयदाब (हायपरटेन्शन) जैसे रोग पैदा होते है। यदि ऐसी निश्चित सूची सहज और सरल की जाए तो अतिशय सक्षम विद्याथीयों को पर्याप्त व्यायाम नहीं मिलाता।
कुछ ध्यानवर्गों में एक निश्चित वस्तू पर ध्यान करने की शिक्षा दी जाती है। जैसे की श्री गणेश जी या अन्य हिंदू देवता। ऐसे वर्ग में उन विद्यार्थी जो हिंदू नहीं होते उनका ध्यान नहीं जमता। इससे ध्यानवर्ग सफल नहीं होता।
इसलिए अभिजात योगपध्दती और अन्य योगपध्दती इनमें उपस्थित दोषोका का निवारण करने का प्रयत्न अधियोगपध्दती करती है। अधियोगपध्दती स्वयं संपूर्णतः निर्दोष होने का दावा नहीं करती। और नया ज्ञान और नई कल्पना इनका वह स्वागत करती है।
सूत्र २.३ के अनुसार अधियोगपध्दती व्यक्तिगत ध्येयप्राप्ती पर ध्यान देती है। वह व्यक्तिगत क्षमता और पूर्वपीठिका समझकर सिखाती है। और उसमें योगसाधना और शिक्षा के तत्व नई तरह से और नए प्रकार के होते है।
अनुबन्ध: अगले प्रकरण में शरीर-मन-आत्मा संकुल की व्याख्या की है।
सूत्र ४.१: शरीर का अर्थ जीवनसंस्था के उन विभागों का संग्रह जो विभाग पंचेन्द्रियों से (श्रोत्र, चक्षू, रसना, घ्राण, स्पर्श) ज्ञात होते है।
मानव के शरीर, मन और आत्मा स्वतंत्र विभाग है किंतु एक-दूसरे से पूर्णतः जुडे होते हैं। इसका अर्थ वे एकत्र कार्य में सहभागी होते है। शरीर यह मन और आत्मा के अलावा निरर्थक है। और, शरीर तथा मन आत्मा के अलावा कुछ नहीं कर सकते। किंतु अधियोग पध्दतिनुसार शरीर, मन और आत्मा ये विभिन्न है, एक वस्तू नहीं।
यदि हम वर्तमान में ग्रहण होनेवाली जानकारी का अभ्यास करेंगे तो यह पाएॅंगे की यह जानकारी केवल पॉंच इंद्रियों से पायी है। परंतु इसके साथ ऐसी भी कुछ जानकारी है जो वर्तमान में ग्रहण नहीं हो रही है।
जीवनसंस्था के जो विभाग वर्तमान में पॉंच इंद्रियों में से एक अथवा अनेकों से ग्रहण होते है वे सर्व शरीर के अवयव होते है। जैसे की हृदय, केस, हाथ, पैर इत्यादी। ये सब कुल मिलाकर शरीर कहलाते है।
ऐसा हो सकता है की इंद्रियों को क्षती होने के कारण व्यक्ती स्वयं कुछ अवयव ग्रहण नहीं कर सकती। परंतु इस परिस्थिती में दूसरी व्यक्ती वे अवयव पॉंच इंद्रियोंद्वारा जरुर ग्रहण कर सकती है।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में ‘मन’ की व्याख्या की है।
सूत्र 4.2: ‘मन’ इसका अर्थ जीवनसंस्था के उन भागों का समूह जो की ज्ञात तो होते हैं किंतु पॉंच इंद्रियोंद्वारा नहीं। मन केवल मन के द्वारा ही ज्ञात होता है। ‘मन’ को छठा इंद्रिय माना जाता है।
जीवनसंस्थाके कुछ भाग ज्ञात तो जरुर होते है परंतु पॉंच इंद्रियोंद्वारा नहीं। जैसे की हमारे अंदर अनेक स्मृतियॉं होती है। हमें यह पता है की हम जानी हुई चीजों का विश्लेषण करते है उसके पश्चात् निर्णय करते है, चीजों पर ध्यान दे सकते है और हमें हमारे अस्तित्व का पता होता है। ये सब शक्तियॉं हमारे अंदर ज्ञात होती है परंतु पॉंच इंद्रियॉं इस ज्ञान में भाग नहीं लेती। अधियोगपध्दती में इन सबका समूह ‘मन’ नाम से जाना जाता है।
मन के विभागों को समझने के लिए उसकी प्रक्रिया को देखते है। कोई भी ज्ञेय वस्तू पहली बार इंद्रियद्वारा ही ज्ञात होती है। इस ज्ञान के लिए हमारा ध्यान उस वस्तू पर पड़ना चाहिए। वह विभाग जो वस्तू से संलग्न होता है उसे ‘चित्त’ कहते है। चित्त के संबंध के बिना वस्तू ज्ञात नहीं होती। जैसे की प्रतिदिन हमारा संबंध अनेकों वस्तूओं से आता है। जैसे की प्रवास करते समय। किंतु उनमें से बहुत सारी चीजें हमें पता नहीं लगती क्योंकी यद्यपि वस्तूओं का इंद्रियग्रहण होता है, चित्त वस्तू से संलग्न नहीं होता। वस्तू से निकली प्रकाशके कारण ऑंखोंमें अंतःपटल पर वस्तू की प्रतिमा होती है। किंतु चित्तसंबंध के अभाव में वस्तू ज्ञात नहीं होती। सोचने जैसी बात यह हैं की बहुत सारी वस्तुओं का ज्ञान न होने के कारण हमारा मन थक नहीं जाता। नही ंतो हम थककर सोचने में गडबड़ी हो सकती है।
चित्त वस्तू से संलग्न होनेपर वस्तू का ज्ञान हो जाता है। तत्पश्चात मानस में उसका संकल्पविकल्पात्मक विश्लेषण शुरु होता है। इससे जो ज्ञान का स्वरुप बनता है वह बुध्दी के पास पहुॅंचता है जिससे वह निर्णय ले सके। यह बुध्दी निर्णयकारिणी होती है। इस निर्णय में बुध्दी वस्तू का वर्तमान ज्ञान, भूतकाल में संचित ज्ञान, मानसमें किया हुआ विश्लेषण, इत्यादी का उपयोग करती है।
मन के अंदर का सब ज्ञान थोडे या ज्यादा समय तक मन में ही रखा जाता है। इस संग्रहकारिणी शक्ती या विभाग को ‘स्मृृती’ नाम है। ‘स्मृती’ का महत्त्व मनुष्य के जीवन में अत्यंत होता है और स्मृती बुध्दी की प्रगल्भता से जुड़ी होती है।
अब मन के अंतिम विभाग को देखते है। इस विभाग में यह सोच रहती है की व्यक्ती के जीवन में जो घटनाएॅं होती है वे व्यक्ती स्वयं कर रही है अथवा व्यक्ती के नियंत्रण में हो रही है। इसको व्यक्ती का ‘अहंकार’ कहलाते है। किंतु व्यक्ती केवल सब घटनाओं का केवल एक अंश होती है।
अब एक मिसाल देखते है। योगशिक्षक एक योगवर्ग सिखाता है। यह वर्ग किन किन बातों पर आधारित है? योगशिक्षक का जन्म, जो की पूरी तरह से शिक्षक के नियंत्रण में नहीं। दूसरा, यह वर्ग योगशिक्षक के योगज्ञान पर निर्भर है, जो की किसी शिक्षक अथवा लेखक से पाया है। अब लेखक या शिक्षक का जन्म तो विद्यमान योगशिक्षक के नियंत्रण में बिलकुल ही नहीं। वैसे ही विद्यार्थियों का जन्म, उनका योगशिक्षकसे मिलना, इत्यादी। ऐसी अनेकों बाते योगशिक्षक के हाथ में नहीं। किंतु योगशिक्षक को अपने योगवर्ग पर नियंत्रण होने की संभावना होती है। इसीको अहंकार कहते है।
सारांश में मन मानस, बुध्दि, अहंकार, स्मृती और चित्त इनसे बनता है। मन केवल मन से ही ज्ञात हो सकता है शरीरद्वारा नहीं। मन को षष्ठ या छटा इंद्रिय कहते है।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में ‘पुरुष’ का मन एवं शरीर के पार अस्तित्व दिखलाया है।
सूत्र ४.३: ‘पुरुष’ का अर्थ व्यक्ति का मूलभूत अस्तित्व की जो मन और पॉंच इन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं होता।
व्यक्तिका जीवन देखा जाए तो उसके शरीर का प्रत्येक अणुरेणु उस व्यक्ती से बाहर के पदार्थ ग्रहण करने से होता है। इसके विपरीत व्यक्ती का मन पॉंच इंद्रियों से ग्रहण की हुई जानकारी तथा मन के भीतर के संकल्प-विकल्पों से बनता है। मन बनानेवाली जानकारी वर्तमान जन्म और पीछले जान्मों की होती है। शरीर की पेशीयों का आयुमान सीमित होता है। कुछ समय के पश्चात शरीर की पूरी की पूरी पेशीयॉं नए पेशीयों से बदल जाती है।
वैसे ही मन भी समय के साथ बदलता है। नयी जानकारी आती है। पुरानी भूल जाती है। किंतु, व्यक्ती की पहचान जीवनभर एक ही रहती है। वह कभी बदलती नहीं है और न ही आती-जाती रहती है।
शरीर मन और पंचेद्रियोंद्वारा ज्ञात होता है। और मन भी मन के द्वारा ज्ञात होता है। किंतु पुरुष न तो इंद्रियोंद्वारा और न हि मन के द्वारा जाना जा सकता है।
अब हम एक उद्धरण लेते है। ‘नील’ का जन्म एक अभ्रक के रुप में हुआ। यह अभ्रक बादमें रांगनेवाला बालक बन गया। उसके बाद स्कूल में जानेवाला बच्चा बन गया और फिर बड़ा आदमी बन गया। और कालानुरुप ‘नील’ की मृत्यु भी जरुर होगी। इस जीवनप्रवाह में नील का शरीर हर सात वर्ष में पूरी तरह से नया बन जाता है पुराना कोई अवशेष नहीं रहता। वैसे ही जन्म के समय कोई भी भाषा न जाननेवाला बालक आगे आगे अनेक भाषाएॅं जान जाता है, अनेक खुबीयॉं सीखता है और फिर वृद्धावस्था में कुछ जानकारी खो बैठता है। कहने का मतलब यह है की यदि ‘नील’ शरीर और मन होता तो ऐसा कहना पड़ेगा की एक नील का जन्म हुआ, दूसरा कोई नील शाला में गया, तीसरा कोई नील कॉलेज में पढ़ता था, चौथे कोई नील की शादी हुई और इन सबसे अलग नील की मृत्यु। परंतु हम जानते है की ऐसा कहना गलत है। एक ही नील इन सब स्थित्योंतरों से जाता है और ‘नील’ की पहचान एक ही व्यक्ती है। यह पहचान ही नील की ‘आत्मा’ या ‘पुरुष’ है।
जब व्यक्ती की मृत्यु होती है तब शरीर महाभूतों में विलीन हो जाता है, और आत्मा तथा मन दूसरे शरीर का निर्माण करते हैं (सूत्र ४.५)। यदि कर्म पूर्णतः निःशेष हो जाता है तो आत्मा मुक्त हो जाती है। इन दोनों में ‘आत्मा’ कभी नष्ट नहीं होती।
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भगवद्गीता २.२०
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्वाति नरोपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णन्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
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अनुबन्ध अगला सूत्र अतिशय महत्त्वपूर्ण विषय ”कर्म“ की व्याख्या करके शरीर-मन-आत्मा संकुल का निर्माण वर्णन करता है।
सूत्र 4.5 जब कौनसी भी क्रिया उसके फल में आसक्त होकर की जाती है तब ‘कर्म’ नाम परिणाम की उत्पत्ती होती है। कर्मबंधन से युक्त पुरुष शरीर और मन के पिंजरे में बध्द हो जाता है।
प्रत्येक व्यक्ती जीवन में हमेशा कुछ न कुछ क्रिया करता है। क्रिया करते समय उसके फल की अपेक्षा अपने आप विद्यमान रहती है। परंतु उस क्रिया का वास्तविक फल क्रिया के अंत तक ज्ञात नहीं होता। प्रायः वास्तविक फल अपेक्षित फल से पूर्णतः या अंशतः भिन्न होता है। यदि क्रिया करनेवाला व्यक्ती फल में पूरी तरह से आसक्त होता है तब इच्छापूर्ती के अभाव में वासना का निर्माण होता है। वह ऐसेः
जब क्रिया का फल इच्छित फल से अच्छा होता है जो की बहुत कम बार होता है, तब व्यक्ती की अपेक्षा बढ़ जाती है। जब क्रिया फल अपेक्षा से कम श्रेणी का होता है, तब व्यक्ती में अपेक्षित फल मिलाने की इच्छा उभर आती है।
जिन वासनाओं की पूर्ती नहीं होती वे सब मिलाकर ‘कर्म’ कही जाती है। ‘कर्म’ व्यक्ती को क्रिया करने में ढकेलता है। व्यक्ती के जन्म होने के समय पूर्व कर्म या वासनाएॅं उसके आत्मा से जुड़ जाती है। आत्मा को बंधन में डालकर नए शरीर-मन-आत्मा संकुल बनाती है।
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भगवद्गीता - १५.८
शरीरं यदवाप्नोति यचछाप्युत्क्रामतीश्वरः।
गृहीत्वा एतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाषयात।।
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जब व्यक्ती फल में आसक्त न होकर क्रिया करता है ,तब भूतपूर्व कर्म होती रहती है और नए कर्म उत्पन्न नहीं होते। इस तरह संचित कर्म पूर्णतः नष्ट होने से व्यक्ती का पुरुष या आत्मा मुक्त हो जाता है।
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भगवद्गीता - ३.८, ३.९
नियतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायोह्यकमर्णः।
शरीरयात्रापि च तेन प्रसिध्येदकर्मणः।।
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरनकर्म परमाप्नोनि पूरुषः।।
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जब योगी को आत्मसाक्षात्कार होता है तब से वह फलासक्ती के साथ कर्म कर नहीं सकता।
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पात०जलयोगसूत्र - ४.७
कर्मशुक्लाकृष्णम योगिनास्त्रिविधमितरेषाम्।
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आत्मसाक्षात्कार हुआ योगी सिध्दियोंका विनियोग संचित कर्म को नष्ट करनेके लिए करता है। यह प्रक्रिया पात०जलयोगसूत्र के कैवल्यपाद में वर्णन की है।
अनुबन्ध: शरीर-मन-आत्मा संकुल की व्याख्या करने के पश्चात इन तीनों का व्यक्ती के जीवन में होने वाले कार्य से संबंध अगले ४ सूत्र में वर्णन किया है।
सूत्र ४.६: मानव के सभी कार्यो में मन की आवश्यकता होती है। उनमें से कुछ कार्यों में शरीर की भी आवश्यकता होती है। ये शारीरिक कार्य कहलाते हैं।
सूत्र ४.७: अन्य कहीं कार्यों में मुख्यतः मन की तथा शरीर की अत्यल्प आवश्यकता होती है। ये मानसिक कार्य कहलाते हैं।
सूत्र ४.८: कुछ कुछ कार्यों में मन और शरीर दोनों की समान मात्रा में आवश्यकता होती है।
सूत्र ४.९: इसी कारण, व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्ती के लिए अलग अलग प्रकार के एवं अलग अलग मात्रा में शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्यों की एवं क्षमताओं की आवश्यकता होती है।
सूत्र १.१ और २.२ में यह प्रस्थापित किया था की मानव हमेशा सुख की खोज में रहता है और उसको पाने के लिए लक्ष्य एवं लक्ष्यप्राप्ती देनेवाला कृतिक्रम बनाता है। इनमें से बहुतांश कृतियों में शरीर का उपयोग किया जाता है। अर्थात् ऐसे कृतिक्रम की सहजता एवं क्षमता शारीरिक आरोग्य तथा क्षमता पर निर्भर होती हैं। जैसे की, जिस व्यक्ती को दौड़ने की शर्यत में मेडल पाने का सुख चाहिए उसको स्वस्थ और सक्षम श्वसनसंस्था , स्वस्थ और सक्षम रक्ताभिसरण, और अन्य शारीरिक स्वास्थ्य एवं क्षमता की जरुरत होगी। उसको उच्चस्तर के मानसिक स्थिती की जरुरत नहीं।
वैसे ही, कुछ कार्य मानसिक स्थिती पर निर्भर होती है। जैसे की वैज्ञानिक संशॊधक को अत्यंत शारीरिक क्षमता की जरुरत नहीं बल्कि स्वस्थ शरीर, विषेशतः स्वस्थ मज्जासंस्था, शांत और एकाग्र मन इनकी अधिक आवश्यकता होती है।
वैसे ही कुछ कार्य में शरीर और मन दोनों समान मात्रा में लगते है। जैसे की अंतरालवीर को समान मात्रा में उच्चस्तर के शारीरिक और मानसिक आरोग्य एवं क्षमता की जरुरत होती है।
अंतमें, ध्यानधारणा करने वाले योगी को शांत और एकाग्र मन तथा सांसारिक चीजों से विरक्ती इनकी आवश्यकता होती है।
आध्यात्मिक स्वास्थ्य की व्याख्या इस तरह कर सकते है की संतुलित मन जो भौतिक वस्तूओं से विरक्त है और आत्मसाक्षात्कार की तीव्र इच्छा रखता है। आध्यात्मिक क्षमता की व्याख्या इस तरह कर सकते है की पूर्व विधान में बनाए हुए गुण किनने आत्मसात किए है।
सारांश में, प्रत्येक व्यक्ती को सुखप्राप्ती के लिए एक व्यक्तिगत तरह के और मात्रा में शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं क्षमता की आवश्यकता होती है।
अनुबन्ध: अगला सूत्र यह विधान करता है की अधियोगपध्दती व्यक्तिगत शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक आवश्यकता की पूर्ती के सर्व ही साधन प्रदान करती है।
सूत्र ४.१०: व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्ती के लिये आवश्यक शारीरिक, मानसिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा क्षमता को पाने के उपयुक्त साधन अधियोग पध्दती प्रदान करती है।
अधियोगपध्दती वो साधना सिखाती है जिससे व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्ती तक ले जानेवाले शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं क्षमता प्राप्त हो सके। अधियोगपध्दती एक पूर्वनियोजित साधना सबके लिए नहीं बनाती या सिखाती।
अनुबन्ध: अगला सूत्र यह विधान करता है की अभिजातयोगपध्दती केवल आध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं क्षमता के लिए आवश्यक है।
सूत्र ४.११: शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा क्षमता के लिए अभिजातयोगपध्दती अनिवार्य नहीं होती। वो तो आध्यात्मिक स्वास्थ्य तथा क्षमता के हेतू है।
अभिजात अभिजातयोगपध्दती का मुख्य हेतू आत्मसाक्षात्कार तथा कैवल्य प्राप्त करना है। इस प्राप्ती का मुख्य साधन ध्यानधारणा है। इसके लिए अत्याधिक मात्रा में शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य तथा क्षमता की जरुरत नहीं होती। इस बात की पुष्टी के लिए हम यह देख सकते है की जो संत या योगी आध्यात्मिक लक्ष्यप्राप्ती कर चुके है, वे प्रायः शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य तथा क्षमता में उच्च श्रेणी के नहीं होते। अभिजात योगपध्दती में समाविष्ट सभी शारीरिक तथा मानसिक व्यायाम ध्यानधारणा सुलभ करने हेतू है न कि उच्च श्रेणी के स्वास्थ्य और क्षमता के लिए आवश्यक। वे शारीरिक तथा मानसिक क्षमता के लिए उपयुक्त है किंतु अत्युच्च श्रेणी की नहीं। इसलिए अत्यधिक शारीरिक क्षमता की जरुरत होनेवाले खेलकूद मेें अभिजात योगपध्दती के व्यायाम नहीं किए जाते।
इसके अलावा, हमें अनेकों स्वस्थ और सक्षम व्यक्ती मिलते है जो की योगव्यायाम बिलकुल नहीं करते। उसी तरह योगव्यायाम करनेवाले व्यक्तियों में अशक्त और अस्वस्थ व्यक्ती भी मिलते है। जैसे की हम देखते है की ऑलिंपिक कसरत करनेवाले जो की अत्याधिक सक्षम होते है, और वैज्ञानिक संशोधक जो अत्याधिक बुध्दिवान होते है, वे बिलकुल ही योगव्यायाम न करनेवाले हो सकते है। बल्कि संतमहात्मा श्री रामकृष्ण परमहंस बचपन में अत्यंत क्षीण शरीर होकर भी बहुत ध्यानधारणा करते थे।
फिर भी यह सत्य है की आध्यात्मिक लक्ष्यप्राप्ती के लिए किसी न किसी योगसाधना की जरुरत होती है।
सूचना: शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं क्षमता का विस्तारपूर्वक वर्णन प्रकरण ६ और ७ में किया है।
अनुबन्ध: अगले प्रकरण में विश्वरचना, प्राणी और उनके मुक्ती में योगसाधना का योगदान वर्णन किया है।
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