Adhiyoga Translated into Hindi Language
सूत्र १.१: प्रत्येक मनुष्य स्वभावासेही सुखकी खोजमे रहता है l
सूत्र १.२: मानसिक अवस्थानुसार, मानवके सुखकी खोज शरीर, मन अथवा इंद्रियातीत अवस्थाकें द्वारा होती है l
सूत्र १.३: शारीरिक इंद्रियोद्वारा प्राप्त सुख शारीरिक तथा मानसिक दोनो प्रकारके स्वस्योपर निर्भर होता है l
सूत्र १.४: केवल मनके द्वारा प्राप्त सुख केवल मानसिक स्वास्थ्यपर निर्भर होता है l
सूत्र १.५: मन तथा इंद्रियोके परे प्राप्त सुख मानसिक स्वास्थ्य और अभ्यास-वैराग्य पर निर्भर होता है l सुखप्राप्ती के लिये आवश्यक कृतीया करते रहना यही अभ्यास है और बाधक कृतीया न करना वैराग्य है l
सूत्र १.६: भौतिक जगतमे प्रायः मानव शरीर तथा मानके द्वारा सुखकी खोजमे रहता है l इसलिये शारीरिक तथा मानसिक स्वस्थयोकी आवश्यकता होती है l
सूत्र १.७: परंतु, आध्यात्मिक जगतमे मानव मनके परे जाकर सुखकी खोज करता है l इस साधनाके लिये उच्च मानसिक स्वास्थ्यकी आवश्यकता होती है l एवं उच्च मानसिक स्वास्थ्यका विनियोग इंद्रियोके परे जानेमे होना चाहिये l इतानाही नही तो मनके कार्यको स्थगित करनेमे भी होना चाहिये l
सूत्र १.८: विविध प्रकारके सुखोकी प्राप्ती करते करते मानवके प्रयत्न तथा अनुभव सूक्ष्म बनते है l वैसेही सुखप्राप्तीके लक्ष्य भी निम्नस्तरसे उच्चस्तरपर जाते है l साधारणतः अध्यात्मिक लक्ष्यको सर्वोच्च स्थान, मानसिक लक्ष्यको माध्यम स्थान तथा शारीरिक लक्ष्य को निम्न स्थान दिया जाता है l
अनुबंध: प्रत्येक मानवकी स्वभावसे हि शरीर-मन द्वारा अथवा शरीर-मनके परे होनेवाली सुखकी खोज सिद्ध हुई है l मानव प्रत्यक्ष रूपमे सुखप्राप्ती कैसे करता है यह अगले प्रकरणमे वर्णन किया है l
सूत्र २.१: प्रत्येक व्यक्ति जीवनमे सुखप्राप्तीके लिये ध्येय बना लेती है l
सूत्र २.२: ध्येयप्राप्तिके लिये व्यक्तिको एक निश्चित कृतिक्रम बनाना पडता है l इस कृतिक्रममे इन चिजोका समावेश होता है: कठीनाईयोंका निवारण, शिस्त, ध्येयसाधनाके योग्य सामुग्री, ध्येयकी ओर ले जानेवाली साधना, साधनामे स्थिरता और ध्येयकी समयसमयपर पुनरावृत्ति l
सूत्र २.३: व्यक्तिगत ध्येयकी योग्यायोग्यता व्यक्तिगत पूर्वपीठिका, सद्य:परिस्थिति, साधनाके लिये प्राप्त समय और साधनाके साथ प्राप्त विश्रांति, इन अंगोपर निर्भर होता है l
अनुबंध: अगले प्रकरणमे सूत्रकार अधियोगपद्धतीपर प्रकाश डालता है l और उसकी अभिजातयोग्यपद्धतिके साथ तुलना करता है l
सूत्र ३.१: अभिजातयोगपद्धति शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य एवं क्षमता प्राप्तके साधनोकी उपलब्धि कराती है l किंतु उनका उद्देश्य समाधि एवं कैवल्य, अर्थात पारमार्थिक ध्येय होता है l
सूत्र ३.२: इसके विपरीत, अधियोगपध्दति व्यक्तिगत ध्येयकी प्राप्तिके लिये है l वह ध्येय शारीरिक हो, मानसिक हो, या पारमार्थिक हो, या इन तीनोका कैसा भी मिश्रण हो l
सूत्र ३.३: अधियोगपध्दतिमे दिये हुए शारीरिक, मानसिक, तथा पारमार्थिक स्वास्थ्य एवं क्षमता प्राप्तिके साधन व्यक्तिगत ध्येयप्राप्तिके लिये निश्चयही आवश्यक होते है l
सूत्र ३.४: इसके अलावा, अधियोगपध्दतिमे पारंपरिक तथा वर्तमानमे प्रचलित योगपद्धतियोंके दोषो तथा त्रुटीयोका निवारण करनेकी चेष्टा होती है l अधियोगपध्दति यह व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्तिके लिये बनायी हुई योगाभ्यास तथा योगध्यापनकी अभिनव पद्धति है l
अनुबंध: अगले प्रकरणमे शरीर-मन-आत्मा संकुल स्पष्ट रुपसे वर्णन किया है l
सूत्र ४.१: शरीरका अर्थ मानवीय जीवनसंस्थाके उन भागोंका समूह की जो भाग श्रवण, दृष्टी, गंध, स्वाद तथा स्पर्श इनसे ज्ञात होते हैं।
अनुबंध : अगला सूत्र 'मन' की अधियोगपद्धतिके अनुसार व्याख्या करता है।
सूत्र ४.२: मन इसका अर्थ जीवनसंस्थाके उन भागोंका समूह की जो भाग ज्ञात होते तो हैं, किंतु पाँच इंद्रियोंद्वारा नहीं। मन केवल मनके द्वारा हि ज्ञात होता है। मनको छठा इंद्रिय माना जाता है।
अनुबंध : अगले दो सूत्र 'आत्मा' का अस्तित्व दिखलाते है , जो कि शरीर और मन के परे है।
सूत्र ४.३: पुरुष का अर्थ वह पहचान जो पाँचों इंद्रिय और मनके द्वारा ज्ञात नहीं हो सकती।
सूत्र ४.४: पुरुष नित्य होता है। किंतु, शरीर तथा मन कालानुरुप प्रतिक्षण बदलते रहते है। अनुबंध :अगला सूत्र अत्यंत महत्वपूर्ण धारणा 'कर्म ' की व्याख्या करके शरीर-मन-आत्मा संकुल का निर्माण वर्णन करता है। सूत्र ४.५: जब मनुष्य फल पर आसक्ति से कार्य करता है, तब वह कार्य 'कर्म ' को निर्माण करता है l कर्म से जुडा हुआ पुरुष मन तथा शरीर के संकुल में संबद्ध हो जाता है।
अनुबंध: शरीर, मन और आत्मा इनकी व्याख्या करने के बाद उनका व्यक्ति के कार्योंसे संबंध अगली चार सूत्र में स्थापित किया है।
सूत्र ४.६: मनुष्यों के सभी कार्यों में मन की आवश्यकता होती है। उन कार्यों में से कुछ कार्यो में शरीर की भी आवश्यकता होती है। ये शारीरिक कार्य कहलाते हैं।
सूत्र ४.७: अन्य कही कार्यो में मुख्यतः मन की किंतु शरीर की अत्यल्प आवश्यकता होती है। ये मानसिक कार्य कहलाते हैं।
सूत्र ४.८: कुछ कुछ कार्यो में मन और शरीर दोनोकी समान रूपसे आवश्यकता होती है।
सूत्र ४.९: इसी कारण, व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्तिके लिए अलग अलग मात्रा में, अलग अलग प्रकार के शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थोंकी एवं क्षमताओंकी आवश्यकता होती है।
अनुबंध: अगला सूत्र यह प्रतिज्ञा करता है, की अधियोगपद्धति सभी प्रकार के स्वास्थ्य एवं क्षमता के साधन प्रदान करती है।
सूत्र ४.१०: अधियोगपद्धति व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्तिके लिए आवश्यक शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थोंके और क्षमताओं के प्राप्ति के साधन सिखाती है।
अनुबंध :अगला सूत्र यह निवेदन करता है कि अभिजातयोगपद्धतिका उद्देश्य केवल आध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं क्षमता यही है।
सूत्र ४.११: पारंपरिक योगपद्धति शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यों के लिए अत्यावश्यक नहीं है। वह तो आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए होती है।
अनुबंध :अगले प्रकरण में विश्व की रचना का तथा उसमें स्थित प्राणियों का वर्णन करके विश्व के बन्धनसे जीवकी मुक्ति करने में 'योग ' का स्थान बताया है।
सूत्र ५.१: ईश्वर या परमेश्वर एक विशेष पुरुष है जो जगतसे पूर्णतया स्वतंत्र है , आपि तु प्रत्येक प्राणिमात्रमे पुरुष के रूप मी प्रतिबिंबित रहता है l व्यक्तिगत पुरुष जगतसे बद्ध होता है और योगाभ्यासके माध्यमसे मुक्त हो सकता है l ईश्वर जगतमे व्याप्त होकार भी जगतसे बद्ध नाही होता l
सूत्र ५.२: प्रकृतिका अर्थ सत्त्व, रजस और तामस इन तीन गुणोसे बना हुआ जगत l प्रकृतिमे सर्व पुरुषो और ईश्वर को छोडकर सर्व सजीव और सर्व निर्जीव वस्तुमात्र का समावेश होता है l
सूत्र ५.३: ईश्वर जैसे प्रकृति एवं सर्व पुरुषोका निर्माता और स्वामी है l
सूत्र ५.४: व्यक्तिगत पुरुष वासनाजनित कर्मसे जगतसे बंधा होता है l परंतु, कैवल्य को प्राप्त हुए सिद्धयोगीका पुरुष इस बंधनसे मुक्त हो जाता है l
अनुबंध: अगले प्रकरणमे ह्म शरीर-मन-आत्मा संकुलके स्वास्थ्यकी चर्चा करेंगे, जो की व्यक्तिगत ध्येयकी प्राप्ति तथा उससे जनित सुखके लिये अत्यावश्यक है l
सूत्र ६.१: स्वास्थ्य इसका अर्थ उत्तम सुस्थिती यह शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक इनमेसे एक या अनेकोंका मिश्रण होता है।
अनुबंध :स्वास्थ्य की पर्याप्त व्याख्या देने पश्चात अगले सूत्र में स्वास्थ्य के प्रमुख निर्णायक तथा स्वास्थ्य के प्रक्रिया में रोगावस्था के स्थान का वर्णन किया है।
सूत्र ६.२: उत्तम सुस्थिती दों बातों पर निर्भर होती है। एक, जीवनसंस्था की उत्तम निर्मलता प्रक्रिया और दो, केवल जीवनाश्यक घटकों की प्राप्ति।जब जीवनसंस्था सामान्य निर्मलता प्रक्रियों से निर्मल नहीं रहती, तब जीवनसंस्था स्वयं ही शीघ्र निर्मलता प्रक्रिया आरंभ करती है। इस, निर्मलता प्रक्रिया को 'रोग' कहते है। रोग स्वयं सुस्थिती में जाने का उपाय है।
अनुबंध: अगले सूत्र मे अन्न की व्याख्या की हैl
सूत्र ६.३ :अन्न इसका अर्थ जीवनसंस्था में बाहर से ली हुई कौनसी भी वस्तु। जैसे हवा, पेय, खाद्यपदार्थ, विचार, संवेदना, इत्यादि। पोषण इसका अर्थ अन्न का जीवनसंस्था में रूपांतर होना। पोषण होने के बिना अन्न वह कितना भी अच्छा अन्न हो, निरूपयुक्त होता है। इतना ही नहीं तो कभी कभार हानिकारक भी होता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में रोगावस्था के समय अन्न और पोषण इनकी स्थिती दिखाई है। और विश्राम की व्याख्या की है।
सूत्र ६.४: रोगावस्था में पोषणक्रिया अंत्यत क्षीण बनती है। इसलिए स्वास्थ्यकाल में हितकारक अन्न भी रोगावस्था में प्राय: अयोग्य होता है। रोग के माध्यम से जीवनसंस्थाने शुरू की हुए निर्मलता प्रक्रिया सक्षम होने के लिए अन्य क्रियाएँ कम से कम होनी चाहिए। इसको विश्राम कहते हैं।
अनुबंध :अगले सूत्र में रोग से पीड़ित व्यक्ति के लिए आवश्यक उपचार का वर्णन किया है।
सूत्र ६.५: रोग से मुक्त होना यह उपचार का परिणाम समझते है। करीब सभी रोगावस्था में "कुछ भी न करना" यह सर्वोत्तम उपाय होता है। कभी कभार शस्त्रक्रिया और स्वानुभवी मार्गदर्शक इन दोनो की आवश्यकता पड़ती है।
अनुबंध :अगले सूत्र में निरूपयुक्त अन्न को विष कहा है।
सूत्र ६.६: विष इसका अर्थ शारीरिक संस्था के लिए स्वास्थ्य काल में निरूपयोगी तथा हानिकारक ऐसा कोई भी पदार्थ। जो पदार्थ स्वास्थ्यकाल में निरूपयोगी होता है वह बिमारी में कभी भी उपयुक्त नहीं हो सकता। परंतु, कभी कभार स्वास्थ्यकाल में उपयुक्त ऐसा पदार्थ भी बिमारी में निरूपयुक्त सिद्ध होता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में औषधी से होने वाली हानी का वर्णन किया है।
सूत्र ६.७: औषध इसका अर्थ दिव्य वनस्पती । औषध के प्रयोग से रोग के लक्षण गुप्त होते है। किंतु रोग का मूल कारण कभी भी दूर नहीं होता। औषध से अल्पकालिन आराम मिलता है। परंतु हमेशा स्वास्थकी विशेषतः मज़्जासंस्था की हानी होती है।
अनुबंध : अगले सूत्र में यह वर्णन हे की हमें स्वास्थ्य प्रदान करने वाले आचरण का स्वीकार करना चाहिए, जिससे निसर्ग आपने आप स्वास्थ्य की रक्षा करेगा।
सूत्र ६.८: संच देखा जाए तो हम सभ स्वभावसेही स्वास्थ्यपरायण होते है। क्योंकि हमारी प्रत्येक अणुरेणू प्रतिक्षण स्वस्थ रहने की चेष्टा करता है। किंतु हमें उच्चतम स्वास्थ्य प्रदान करनेवाले परिणामकारक आचरणकी आवश्यकता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में स्वास्थ्यकारक आचरण न करने का परिणाम बताया है।
सूत्र ६.९: जब स्वास्थ्यकारक आचरण की उपेक्षा होती है तब रोग का उद्भव होता है। रोग यह भी एक प्रकार से किंतु नकारार्थ में स्वास्थ्य का ही रूप है। रोग सच्चे स्वास्थ्य की दिशा दिखलाता है।
अनुबंध : उच्चतम स्वास्थ्य प्राप्ति के साधन कौन से है? यह अगले सूत्र में बताया है।
सूत्र ६.१०: स्वास्थ्य की प्राप्ति केवल स्वास्थ्यकारक आदतोंसेही होती है। अधियोगपद्धती में सर्व प्रकार के स्वास्थ्यप्राप्ति करने के उपाय वर्णन किये है।
अनुबंध :अगले सूत्र में योगसाधना का उद्देश्य शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के रूप में वर्णन किया है।
सूत्र ६.११: योग साधना का मुख्य उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य होता है। मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ मनकी शांति और बुद्धि की स्थिरता। शारीरिक स्वास्थ्य, जो की कभी कभार पूर्ण स्वास्थ्य से जुडा जाता है, उसका उपयोग मानसिक स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए करना चाहिए। आध्यात्मिक स्वास्थ्य अंतिम ध्येय है। मानसिक स्वास्थ्य उसका प्रमुख साधन है और शारीरिक स्वास्थ्य साधन सामग्री है।
अनुबंध : अगला सूत्र उच्चतम शारीरिक स्वास्थ्य के उपाय वर्णन करता है।
सूत्र ६.१२: सर्वोत्तम शारीरिक स्वास्थ्य के उपाय : शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, युक्तहार, आंतरबाह्य स्वच्छता, उचित प्रकार का और उचित प्रमाण में व्यायाम, उचित प्रमाण में विश्राम तथा नींद. उचित प्रमाण में सूर्यप्रकाशसेवन, सुयोस्य तपमान, और भावनाओंमें संतुलन।
अनुबंध :अगला सूत्र उच्चतम मानसिक स्वास्थ्य के उपाय वर्णन करता है।
सूत्र ६.१३ :सर्वोत्तम मानसिक स्वास्थ्य के उपाय : पर्याप्त शारीरिक स्वास्थ्य शारीरिक स्वास्थ्य, श्वासोच्छवास में स्थिरता, इंद्रियोंका संयमन और ध्यानसाधना।
अनुबंध : अगला सूत्र परिपूर्ण आध्यात्मिक स्वास्थ्य के उपाय वर्णन करता है।
सूत्र ६.१४ : परिपूर्ण आध्यात्मिक स्वास्थ्य के उपाय : पर्याप्त शारीरिक स्वास्थ्य, पर्याप्त मानसिक स्वास्थ्य और ईश्वर शरणागती।
अनुबंध :अगला सूत्र यह विधान करता है कि परिपूर्णता की संभावना केवल आध्यात्मिक स्वास्थ्य में होती है, शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्यों में नहीं।
सूत्र ६.१५: शारीरिक स्वास्थ्य में परिपूर्णता अशक्य होती हे और इसी कारण आखिर मृत्यू होती है। मानसिक स्वास्थ्य में परिपूर्णता अशक्य होती हे और इसी कारण ज्ञान अधूरा रहता है।आध्यात्मिक स्वास्थ्य में परिपूर्णता संभव होती है और उसकी परिणती संपूर्ण ईश्वर शरणागती मे होती है।
अनुबंध :अगले सूत्र में परिपूर्ण आध्यात्मिक स्वास्थ्य और ईश्वर शरणागती की एकता सिद्ध करके उसको मानवीय जीवन का अंतिम उद्देश्य बताया है।
सूत्र ६.१६ :आध्यात्मिक स्वास्थ्य की परिपूर्णता, संपूर्ण ईश्वर शरणागती, योगसिद्धावस्था, अखंड आनंद ये सब आवस्थाएँ एक ही है। एक दृष्टी से यही मानवीय जीवन का प्रमुख प्रयोजन है।
अनुबंध : स्वास्थ्य का सखोल विवेचन करने के पश्चात अगले प्रकरण में क्षमता का विवेचन किया है।
सूत्र ७.१: क्षमत्व का अर्थ किसी भी कार्य करने की विद्यमान शक्ति ।
अनुबंध :अगले सूत्र में स्वास्थ्य और क्षमत्व इनका संबंध वर्णन किया है।
सूत्र ७.२: क्षमत्व और स्वास्थ्य इनका परस्पर संबंध जरुर होता है। परंतु वे दोनो एक नहीं होते। और एक की विद्यमानता दुसरे की विद्यमानता सिद्ध नहीं कर सकती।
अनुबंध :अगले सूत्र में क्षमत्व प्राप्ति का साधन बतलाया है।
सूत्र ७.३:पोषण और विश्राम के साथ समुचित व्यायाम लेनेसे क्षमत्व प्राप्त होता है।
अनुबंध :क्षमत्व और स्वास्थ्य दोंनो विश्राम पर निर्भर होते है। इसलिए अगले प्रकरण में विश्राम का विवेचन किया है।
सूत्र ८.१:किसी शरीरके या मनू के अंग के कार्य का स्वेच्छासे से किया हुआ अभाव उस शरीर या मन के अंग का विश्राम है।
सूत्र ८.२:स्वैच्छिक शारीरिक संस्था का सर्वाधिक विश्राम स्वप्नरहित निद्रा के समय होता है।
सूत्र ८.३:अनैच्छिक शारीरिक संस्था का सर्वाधिक विश्राम उस शारीरिक संस्था से संबंधित कार्य की आवश्यकता को निम्नतम करने से होता है।
सूत्र ८.४: मानसिक संस्था का सर्वाधिक विश्राम स्वप्नरहित निद्रा और मनकी समाधि स्थिति में होता है।
अनुबंध : विश्राम की चर्चा में उपवासनामक विश्राम का विशेष रूप से वर्णन अगले सूत्र में किया है। क्योंकि स्वास्थ के पुनर्वसन में उपवासकी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
सूत्र ८.५: शारीरिक कार्य संस्था का सर्वाधिक विश्राम उपवास के समय होता है। उपवास का अर्थ :खाद्यपदार्थ न खाना, केवल शुद्ध पानी ग्रहण करना, और शारीरिक तथा मानसिक कार्य कम से कम करना।
अनुबंध : स्वास्थ्य का अंतिम ध्येय 'आत्मानुभूति' होती है और वह अनुभूति मनकी समाधि अवस्था में होती है। इसलिए, अगले सूत्र में स्वप्नरहित निद्रा (विश्राम की महत्वपूर्ण अंग) का समाधि के साथ होनेवाला संबंध दिया है।
सूत्र ८.६: स्वप्न रहित निद्रा समाधि के सदृश होती है। परंतु वह अनैच्छिक होती है समाधि की प्राप्ति योगसाधना से होती है, किंतु निद्रा विनासायास होती है।
अनुबंध :स्वास्थ्य तथा क्षमत्व प्राप्त करने में विश्राम और पोषण का महत्व वर्णन करने के पश्चात अगले प्रकरण व्यायाम की चर्चा की है जो भी स्वास्थ्य तथा क्षमता प्राप्ति का महत्वपूर्ण अंग है।
सूत्र ९.१ :व्यायाम का अर्थ कौनसी भी क्रिया विद्यमान क्षमता से थोडीसी अधिक मात्रा में करना। जब क्रिया क्षमता से अत्यधिक मात्रा में होती है, उसका परिणाम तनाव होता है। जब क्रिया विद्यमान क्षमता के समतुल्य होती है, क्षमता विद्यमान मात्रा में ही रहती और उसमें सुधार नहीं होता। जब क्रिया विद्यमान क्षमता से कम मात्रा में होती है, उस में धीरे-धीरे घट होती है।
अनुबंध : व्यायाम की व्याख्या के पश्चात अगले सूत्र में योगव्यायाम को लक्ष्य बनाया है।
सूत्र ९.२: जब व्यायाम मनकी एकत्रता से तथा जीवनसंस्था के निर्धारित विभाग को सुधारने के लिए किया जाता है, वह योगव्यायाम कहलाता है। सब प्रकार के योगव्यायाम में मनकी एकाग्रता आवश्यक होती है।
अनुबंध :अगला सूत्र यह विधान करता है कि शारीरिक क्षमता के लिए योगव्यायाम अत्यावश्यक नहीं होता।
सूत्र ९.३: शारीरिक क्षमत्व के लिए योगव्यायाम उपकारक होता है, न की अत्यावश्यक।
अनुबंध : शारीरिक क्षमता के लिए योगव्यायाम की अत्यावश्यकता नहीं होती इस विधान के पश्चात अगला सूत्र मानसिक क्षमता के लिए समान विधान करता है।
सूत्र ९.४: मानसिक क्षमता के लिए अभिजात योगव्यायाम उपकारक होता है न कि अत्यावश्यक।
अनुबंध : अगले सूत्र में पारंपरिक हठयोग नये तरीकेसे बताया है।
सूत्र ९.५: शारीरिक व्यायाम के लिए किये एकाग्र मन का उपयोग हठयोग है। मन के लिए किये एकाग्र मन का उपयोग ध्यान है।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में हठयोग का प्रयोजन वर्णन किया है।
सूत्र ९.६: हठयोग से शारीरिक सुधार के अलावा मानसिक एकाग्रता में भी थोडासा सुधार होता है क्योंकि मन की एकाग्रता करनीही पडती है।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में हठयोग का स्वरुप देकर हठयोग व्यायामों की संख्या अनंत होने का विधान किया है।
सूत्र ९.७: हठयोग में विविध शारीरिक अवयवों का व्यायाम होता है जैसे स्नायू, हड्डियॉं, रक्ताभिसरण, श्वासोच्छवास और मज्जासंस्था। हठयोग के व्यायामेां की संख्या अनंत है।
अनुबन्ध: अगला सूत्र हठयोग का ध्यान करने में तथा ध्येय प्राप्ती के लिए उपयोग वर्णन करता है।
सूत्र ९.८: हठयोग करने से मन की एकाग्रता प्राप्त होती है, जो की ध्यान करने में उपयुक्त होती है। वह ध्यान भौतिक अथवा आध्यात्मिक ध्येयप्राप्ती के लिए उपयुक्त होता है।
अनुबन्ध: अगला सूत्र यह विधान करता है की हठयोग संपूर्ण आध्यात्मिक साधना नहीं है।
सूत्र ९.९: आध्यत्मिक फलप्राप्ती के लिए केवल हठयोग पर्याप्त नहीं है।
अनुबन्ध: अगला सूत्र आध्यात्मिकता के साधकों को ध्यानसाधना का प्रारंभ प्राथमिक आयु में करने की सलाह देता है।
सूत्र ९.१०: शारीरिक अथवा मानसिक व्यायाम में शारीरिक तथा मानसिक अवयवों की विद्यमान क्षमता से अधिक कार्य किया जाता है। किंतु शारीरिक तथा मानसिक सुधार के लिए पोषण, व्यायाम तथा विश्राम इनका उचित मिश्रण अत्यावश्य्क होता है।
अनुबन्ध: व्यायाम की सांगोपांग चर्चा के पश्चात अगले प्रकरण में अधियोगप्रणित योग व्यायाम की चर्चा की है।
सूत्र १०.१: मन की एकाग्रता के साथ किया हुआ कोई भी व्यायाम योगव्यायाम है। शारीरिक योगव्यायाम क्षमत्व, स्वास्थ्य तनाव - निवारण और ध्यानावश्यक एकाग्रता पाने के लिए किया जाता है। शारीरिक योगव्यायामसे प्राथमिक ध्यान का प्रारंभ होता है।
अनुबंध :अगला सूत्र शारीरिक योगव्यायाम की व्याख्या करता है।
सूत्र १०.२:
शारीरिक योगव्यायाम का अर्थ : निर्धारित शारीरिक अवयवों के कार्यों को जैसे हलचल, मज्जा शक्ति बल रासायन प्रक्रिया इत्यादि विद्यमान क्षमता से ज्यादा करना। प्रयास की मात्रा विद्यमान क्षमता से न तो बहुत कम होनी चाहिए, न तो बहुत अधिक।
अनुबंध :अगला सूत्र शारीरिक व्यायाम के अत्यावश्यक अंग वर्णन करता है।
सूत्र १०.३: शारीरिक योगव्यायाम सफल होने के लिए उचित पोषण तथा पर्याप्त विश्राम अत्यावश्यक होते है।
अनुबंध :अगले सूत्र में शारीरिक योगव्यायाम की विधियाँ बतायी है।
सूत्र १०.४:शारीरिक योगव्यायाम में निर्धारित शरीरावयव की हलचल या तान को विद्यमान क्षमता से अधिक मात्रा में किया जाता है। इसमें किसी एक शरीराकृती में निर्धारित समयतक रहना (आसन), श्वासोच्छवास में बदल करना (प्राणायाम) आसनों को निर्धारित क्रम से करना (विन्यास) इनका समावेश होता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में शारीरिक योगव्यायाम का विस्तार से वर्णन करता है।
सूत्र १०.५:आसननामक शारीरिक योगव्यायाम में शारीरिक निर्धारित स्थिती को निर्धारित समय तक रखा जाता है। विन्यास नामक शारीरिक योगव्यायाम से स्थितियों को निर्धारित क्रम के अनुसार और श्वास-प्रश्वास के साथ किया जाता है। प्राणायामनामक शारीरिक योगव्यायाम में श्वास - प्रश्वास का सूक्ष्मतासे नियमन तथा निरोध किया जाता है।
अनुबंध :अगला सूत्र हठयोग विषयक चेतावनी देता है।
सूत्र १०.६: पारंपरिक हठयोग में कुछ अनोखी विधियाँ होती है, जैसे नेति (नाकसे पानी का ग्राहण), धौती (कपडे से अंतरावरण साफ करना),बस्ती (एनिमा), इत्यादि l ये विधियाँ उचित जानकारी तथा मार्गदर्शन के अभाव में हानिकारक होती है।
अनुबंध :अगले सूत्र में योगसाधन को पारंपरिक योगासन से मुक्ती दी है।
सूत्र १०.७: परंपरानुसार कुछ योगासन लोकप्रिय होते है। किंतु अधियोग पद्धती में सुरक्षित अनुभवी योगी नूतन योगासनों का निर्माण करता है। योगासनों के नाम केवल जानकारी के लिए होते है।
अनुबंध :अगले सूत्र में प्राणायामनामक सूक्ष्म योगव्यायोमका वर्णन दिया है।
सूत्र १०.८: योगव्यायाम जितना अधिक सूक्ष्म होता है, उतनीही अधिक मनकी एकाग्रता जरुरी होती है, और उतनाही अधिक लाभ होता है। सूक्ष्मतम व्यायाममे सें एक मे श्वासोच्छवास का सूक्ष्मतासे नियमन तथा रोध भी किया जाता है। इसे प्राणायाम कहते है। उससे ध्यानोपयुक्त मन की एकाग्रता प्राप्त होती है।
अनुबंध : अगले सूत्र में अधियोग पद्धती तथा पारंपरिक योग पद्धती इन दोनो में 'स्वास्थ्य' का तुलनात्मक वर्णन किया है।
सूत्र १०.९:प्राचीन काल में योगसाधना का ध्येय समाधीप्राप्ति तथा कैवल्यप्राप्ति था। वह शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य के लिये बनायी नहीं थी। इसलिए प्राचीन योगशास्त्र में स्वास्थ्य विषयक अंगों की त्रुटियाँ पायी जाती है। अधियोग पद्धती ये सब स्वास्थ्य विषयक त्रुटियों का अभाव दूर करके पारंपरिक योग पद्धती का विस्तार करती है अलबत अध्यात्मिक अंगों को सुरक्षित रखती है।
अनुबंध :अगले सूत्र में आधुनिक समाजकी अपेक्षाएँ तथा उनके पूर्ती के साहय्यक योगसाधना बतलाती हे।
सूत्र १०.१०:आधुनिक काल में योग का उपयोग क्षमत्व तथा स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए होकर उसी को गलतीसे आध्यात्मिक समझा जाता है। आध्यात्मिक साधना समाधी तथा कैवल्य की प्राप्ति के लिए होती है।
अनुबंध :अगला सूत्र यह विधान करता है कि योगसाधना सामाजिक हित के लिए नहीं होती।
सूत्र १०.११:योगभ्यास व्यक्तिगत होता है,सामाजिक नहीं। परंतु योगसाधना करने वाला व्यक्ती समाज प्रिय बनकर समाजहित करने की संभावना होती है।
अनुबंध :अगले सूत्र में योग और आयुर्वेद का संबध वर्णन किया है।
सूत्र १०.१२ :मूलतः योग और आयुर्वेदा के उद्देश्य परस्पर विरोधी है। आधुनिक काल में स्वास्थ्य तथा उपचारो के प्रादुर्भाव के कारण योग और आयुर्वेद एकसाथ पाये जाते है।
अनुबंध :अधियोग पद्धती में योगसाधना के तत्व सुस्पष्ट है यह विधान अगला सूत्र करता है।
अनुबंध: अधियोग पद्धती में अनेकों सुस्पष्ट तत्वों का आचरण होता है। अगले प्रकरण में अधियोग प्रणित शारीरिक योगव्यायाम - तत्वों की सूची दी है।
११.१ प्रसन्न चेहरा।
११.२ मृदु मान।
११.३ बंद मुॅंह।
११.४ अंदर का निरीक्षण l
११.५ क्षमतानुसार व्यायाम l
११.६ खुला पचनमार्ग l
११.७ फुर्ती होने पर ही व्यायाम l
११.८ लक्ष्यपूर्वक व्यायाम l
११.९ क्रमपूर्वक प्रगति l
११.१० व्यायाम के लिए अवयवों की तैय्यारी l
११.११ अतिसुलभ तथा अतिकठिन व्यायाम न करना ।
११.१२ व्यायाम काल में बीच बीच में विश्राम ।
११.१३ जितना हो सके पूर्णता की ओर जाना ।
११.१४ व्यायाम करते समय पूर्ण किंतु शक्तिनुसार प्रयत्न।
११.१५ विश्राम के समय शून्य प्रयत्न।
११.१६ अन्त में केवल अस्थिपंजर से आसन।
११.१७ सतत मन का स्मरण।
११.१८ विचार से जादा निरीक्षण।
११.१९ उचित प्रकार का उचित मात्रा मेें अन्नसेवन।
११.२० लक्ष्यपूर्तीकारक व्यायाम।
११.२१ आवश्यकता होने पर आधारों का उपयोग, आवश्यकता न होने पर बिलकुल नहीं।
११.२२ संशयरहित साधना।
११.२३ जानकारी पाकर और औचित्यपूर्ण विन्यास व्यायाम।
११.२४ जानकारी पाने से अधिक साधना का महत्त्व।
११.२५ दो बाजू के व्यायाम में कठिन बाजू का व्यायाम अधिक।
११.२६ व्यायाम में श्वासप्रश्वास का उचित समावेश ।
११.२७ पर्याप्त विश्राम।
११.२८ दुखापत हुए अवयव को व्यायाम न दे।
११.२९ बहुव्यायाम के पश्चात शवासन।
११.३० व्यायाम करने की जगह को जाने।
अनुबन्ध: अगला प्रकरण अधियोगप्रणित प्राणायाम के तत्त्वों की चर्चा करता है।
सूत्र १२.१:श्वसन अपने आप में एक अनैच्छिक क्रिया है जो मनुष्य के जीवनभर चलते रहती है।
अनुबंध: अगला सूत्र यह विधान करता है कि शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्राणायाम की आवश्यकता नहीं है।
सूत्र १२.२: शारीरिक स्वास्थ्य के लिए प्राणायाम उपकारक हो सकता है परंतु आवश्यक नहीं। केवल शुध्द हवा तथा श्वसन की क्षमता आवश्यक होती है।
अनुबन्ध: अगला सूत्र यह विधान करता है कि सामान्य मानसिक स्वास्थ्य के लिए प्राणायाम की आवश्यकता नाहीं है।
सूत्र १२.३: सामान्य मानसिक स्वास्थ्य के लिए प्राणायाम उपकारक हो सकता है, परंतु आवश्यक नहीं।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में प्राणायाम की व्याख्या देकर उसका ध्यानसाधना से संबंध वर्णन किया है।
सूत्र १२.४: प्राणायाम का अर्थ श्वासप्रश्वास के गति का सूक्ष्मता से विच्छेद करना। इसको यौगिक श्वसन भी कह सकते है। इससे मानसिक स्वास्थ्य तथा क्षमत्व प्राप्त होते है, इससे ध्यानसाधना सुलभ होती है जो स्वयं आध्यात्म्कि साधना है।
अनुबन्ध: अगला सूत्र हठयोग की कुछ श्वसनसंबंधित शुद्धिक्रियाऐं, जैसे कपालभाती और प्राणायाम में विभिन्नता दिखाता है।
सूत्र १२.५: कुछ शुद्धिक्रियाऐं, जैसे कपालभाती और भस्त्रिका, जिनमें जोर लगाकर श्वसन करते है, वास्तविकता में प्राणायाम नहीं होती।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में वास्तविक प्राणायाम का स्वरुप दिया है।
सूत्र १२.६: प्राणायाम में श्वसन दीर्घ तथा सूक्ष्म होता है। उसकी गति देश, काल और संख्या में नापी और बदली जाती है। और उसमें श्वास का स्तंभन भी होता है जिसको कुम्भक कहते है।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में सहजकुम्भक का वर्णन दिया है, जो की उच्चतम प्राणायाम माना जाता है।
सूत्र १२.७: केवलकुम्भक या सहजकुम्भक में अंदर या बाहर का विचार किए बिना अपने आप श्वसन का स्तंभन होता है। यह उच्चतम प्राणायाम है।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में प्राणायाम का वास्तविक प्रयोजन दिया है।
सूत्र १२.८: प्राणायाम एक शारीरिक क्रिया है। परंतु उससे मन सात्विक होता है और ध्यानसाधना के योग्य होता है।
अनुबन्ध: अगला सूत्र प्राणायाम के लिए आवश्यक अंगो का वर्णन करता है।
सूत्र १२.९: प्राणायाम के लिए आवश्यक शुध्द हवा, शांत परिसर, स्थिरसुख आसन, और ताठ मेरुदंड।
अनुबन्ध: अगले सूत्र में योगासन और प्राणायाम इनका संबंध बताया है।
सूत्र १२.१०: प्राणायाम के लिए स्थिरसुख आसन से दुसरे किसी आसन की आवश्यकता नहीं होती।
अनुबन्ध: अगला सूत्र यह विधान करता है की विन्यास नामक योगव्यायाम में किया जानेवाला श्वसन वास्तविक प्राणायाम नहीं होता।
सूत्र १२. ११: विन्यास नामक योगव्यायाम में किया जानेवाला श्वसन वास्तविक प्राणायाम नहीं होता।
अनुबन्ध: अगले प्रकरण में अधियोगप्रणित ध्यानसाधना के तत्वों का वर्णन किया है।
13.1 मानसिक योग्यव्यायाम में मन से मन का प्रशिक्षण होता है।
13.2 मन के पॉंच अंग है: चित्त, मानस, बुध्दि, स्मृति और अहंकार। चित्त मन के बाहर के जगत् का ग्रहण करता है और पुरुष मन का साक्षी होता है। मानस में होनेवाली जानकारी का संकल्प विकल्पात्मक विश्लेषण विनासायास होता रहता है। बुध्दी में जानकारी की प्रतिक्रिया के रूप में निर्णय लिया जाता है और निश्चित क्रिया की उत्तेजना दी जाती है।स्मृति में विद्यमान क्रिया में लगनेवाली तथा भविष्य में लगनेवाली जानकारी का संग्रह होता है।अहंकार में यह भावना होती है की होनेवाली घटनाओं पर व्यक्ति का अधिकार तथा नियंत्रण है, परंतु वास्तविकता में व्यक्ति घटना का एक अंग होती है। चित्त मन के बाहर के जगत् का ग्रहण करता है और पुरुष मन का साक्षी होता है।
13.3 चित्त जानकारी प्राप्त करता है, मन के बाहर से और स्मृती से भी।
13.4 ध्यान की तीन सीढीयॉं है।
अ) ध्यान के लिए शवासन तथा योगनिद्रा: इनमें शरीर को शिथिल करके मन को शांत परंतु सतर्क किया जाता है।
ब) ध्यानपूर्व तयारी: इसमें परिसर, स्वास्थ्य, क्षमत्व, श्वसन और आसन इनका समावेश होता है।
क) वास्तविक ध्यान: इसमें इच्छित ध्यानसाधना होती है।
13.5 वास्तविक ध्यान की तीन सीढियॉं होती है।
अ) धारणा: निर्धारित वस्तू पर चित्तकी एकाग्रता।
ब) ध्यान: धारणा से पाए हुए एकाग्रता में एकतानता।
क) समाधि: ध्यान में खुद का विस्मरण। समाधि समर्पणपूर्वक और दीर्घकाल किए हुए ध्यान का अंतिम परिणाम होती है।
13.6 समाधि में ध्यान करनेवाले को आत्मा की अनुभूती होती है, जो प्रकृति के परे है। इसे आत्मानुभूति या आत्मसाक्षात्कार कहते है।
13.7 आत्मसाक्षात्कार के पश्चात योगी को भूतकाल में संचित कर्मसंस्कारों का निरसन करने की तथा नए कर्म को संस्कार में परिणत होते बिना करने की इच्छा होती है क्योंकि ये संस्कार उसको जगत् से बध्द करते है। इसके अंतिम परिणाम में पुरुष प्रकृति के बन्धन से मुक्त होता है, जिसे कैवल्य कहा जाता है। यही मानवी जीवन का अंतिम प्रयोजन तथा यौगिक साधना का अंतिम ध्येय होता है।
13.8 अधियोगपध्दती में दो प्रकार का ध्यान किया जाता है। एक है अभिजात ध्यान जिसका प्रयोजन समाधिस्थिती होता है। और दूसरा है विनियुक्तध्यान, जिसका प्रयोजन समाधि से अतिरिक्त व्यावहारिक ध्येय होता है। विनियुक्त ध्यान के प्रयोजन के उदाहरण: पढाई के लिए एकाग्रता, तनावमुक्ती, क्रोधानियमन, इत्यादि। सामान्यतः प्रथम विनियुक्त ध्यान करने के पश्चात व्यक्ति को अभिजात ध्यान में रुची हो जाती है।
13.9 अभिजात और विनियुक्त दोनो प्रकार के ध्यान में योग साधक किसी चुने हुए वस्तु - विषय पर मन एकाग्रत करता है। और, उस वस्तू के साथ एक अथवा अनेक इंद्रियोंके माध्यम से मन ही मन मे अनुसंधान करता है। वस्तू काल्पनिक या वास्तविक हो सकती है।।
13.10 केवल अभिजात ध्यान ही आध्यात्मिक साधना होती है।
अनुबन्ध: अगले प्रकरण में अधियोगप्रणित आध्यात्मिक साधना के तत्त्वों की चर्चा की है।।
सूत्र १४.१:जीवन की अवस्था और परिस्थिती कैसी भी हो, प्रत्येक व्यक्ति को दु:ख और अपूर्ण समाधान इनका अनुभव जरुर होता है। कि जहा दु:खरहित सुख का अनुभव मिलता है। है, पुण्यमर्फल समाप्त होने के पश्चात मानवलोक में जन्म होता ही है।
अनुबंध : कुछ लोग अखण्डित दु:रहित अवस्था को चाहते है। और उस अवस्था को प्राप्ति की साधना को आध्यात्मिक साधना कहते है। इसका वर्णन अगले सूत्र में है।
सूत्र १४.२: इसीलिये अखण्डित दु:ख रहित अवस्था की इच्छा होती है। उसको प्राप्त करने के लिए मन को प्राकृति से अलग परलोक में समाधान से रहने का प्रशिक्षण होना पडता है। इसीको आध्यात्मिक योगसाधना कहते है।
अनुबंध : अगले सूत्र में संपूर्ण समाधान वाली स्थिती की जो आध्यात्मिक योग साधना का चरमबिंदू है। वर्णन किया है।
सूत्र १४.3:आध्यात्मिक योग साधना से समाधिनामक मन:स्थिति प्राप्त होती है और समाधि जय भी प्राप्त हो सकता है इस स्थिती में बाह्यजग पर निर्भर न होनेवाला पूर्ण समाधान रहता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में आध्यात्मिकता की आवश्यकता एवं अवैज्ञानिकता वर्णन की है।
सूत्र १४.४:आध्यात्मिक योग साधना स्वभाव से हो अनुमान तथा आगम पर आधारित होती है। प्रत्यक्ष प्रामाणित न होते हुए भी आध्यात्मिक साधना के परिणाम हितावह होते है। इसलिए विश्व में आध्यात्मिकता बनी रहती है।
अनुबंध :अगला सूत्र योग और समाधि इनका संबंध वर्णन करता है।
सूत्र १४.५:अध्यात्म के दृष्टी से समाधी स्थिती में व्यक्तिगत आत्मा (पुरुष) और वैश्विक आत्मा (ईश्वर) इनकी युति होती है। इसीको योग (युति) कहते है।
अनुबंध :अगला सूत्र अधियोग प्रणित आध्यात्मिक योगसाधना की व्याख्या करता है।
सूत्र १४.६:योग नित्य आनंद की आवस्था है। योग प्राप्ति सत्वरता से देनेवाली कौनसी कृती आध्यात्मिक योगसाधना है।
सूत्र १४.७:आध्यात्मिक योगसाधना इनमे सें एक अथवा अनेकों का मिश्रण होती है:कर्मयोग(निष्काम कर्म) ज्ञानयोग (बौद्धिक विश्लेषण, नित्यानित्य विवेक), राजयोग (ध्यानसाधना), और भक्तियोग(ईश्वरभक्ति)। हठयोग (शरीर-मन के व्यायाम) इन सर्व मार्गोको मदद करके प्रभाव बनाता है। ये सर्व आध्यात्मिक साधना का अंतिम चरण ईश्वरशरणागती होता है।
अनुबंध :अगला सूत्र यह बताता है, हम सब लोग पहलेसे ही नित्य आनंद के लिए खोज तथा प्रयत्न करते है। परंतु, हमे प्रभावी साधना की जरूरत होती है।
सूत्र १४.८:स्वभाव से ही वास्तविकता में हम सब योगसाधना कर रहे है, क्योंकि हम प्रतिक्षण आनंद की खोज करते है। परंतु, हमे यह जरुरी है कि हम वह उपाय करे जो प्रभावी हो और जो हमे सत्वर नित्य आनंद की और ले जाय।
अनुबंध :अगला सूत्र आनंद में त्रुटी होने का कारण बताता है।
सूत्र १४.९:जब योगसाधना के प्रभावी उपायों की अपेक्षा की जाती है, तब वियोग नामक आनंद हीन अवस्था प्राप्त होती है। नकारात्मक रुप से वियोग भी एक प्रकार का योग ही है। वियोग सच्चे योग का सूचक है।
अनुबंध :अगले सूत्र में आध्यात्मिक मुक्ति अर्थात्। कैवल्य की व्याख्या दी है।
सूत्र १४.१०:जब प्रकृति से संपूर्ण तया छुटकारा मिलता है, तब व्यक्ति को केवल तथा मोक्ष प्राप्त होता है।
अनुबंध: अगले प्रकरण में योगसाधना में गायन का महत्त्व वर्णन किया है।
सूत्र १५.१: गायन यौगिक साधना का अत्यावश्यक अंग है। विना गायन के योगसाधना अपूर्ण है।
अनुबंध :अगला सूत्र गायन यह एकहि अंग से शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक प्राप्ती होनेका दावा करता है।
सूत्र १५.२: गायन यही एक ही साधन से शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक योगसाधना हो सकती है।
अनुबंध :अगला सूत्र गायन का ध्यानसाधना में योगदान वर्णन करता है।
सूत्र १५.३:गायन का उपयोग विविध प्रकार के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए होता है। परंतु गायन ध्यानसाधना का प्रभावी और सुलभ साधन है।
अनुबंध :अगला सूत्र गायन का सभी आत्मसाक्षात्कारी योगियोंके जीवन में अस्तित्व दिखाता है।
सूत्र १५.४:किसी ना किसी रुप में गायन न करने वाला आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ती मिलना असंभव है।
अनुबंध :अगला सूत्र गायन के विविध रुप वर्णन करता है।
सूत्र १५.५:गायन में ये सब समाविष्ट है: श्वसनप्रकार, राग, स्वर, ताल, गात्रन्यास, मंत्र, महामंत्र, बीजमंत्र, स्तोत्र, तत्त्वज्ञानमनन, भागवदस्मरण, ध्यान, संगीत, मन:शांती, इत्यादि।
अनुबंध :अगला सूत्र पुनरावृत्ति के साथ गायन का सर्वात्मक एवं प्रभावशाली स्वभाव वर्णन करता है।
सूत्र १५.६ :आश्चर्य है कि गायन यौगिक श्वसन (प्राणायाम), शांति, मन की प्रसन्नता (चित्त:प्रसाधन), मन की एकाग्रता (धारणा), मन के एकाग्रता की एकतानता (ध्यान) और समाधि प्रदान करता है। और कैवल्य के पश्चात् नष्ट नहीं होता।
अनुबंध :योग की विविध साधना ओं का पूर्व प्रकरणों में वर्णन करने के पश्चात अगला प्रकरण उचित योगशिक्षके गुण वर्णन करता है।
सूत्र १६.१:अनुभव संपन्न योगशिक्षक से योग विद्या प्राप्त करना सर्वोत्तम है। किंतु उसके अभाव में अनुभव संपन्न योगशिक्षक ने बनायी हुई ध्वनि मुद्रिका, चित्रमुद्रिका, या पुस्तक से योग विद्या प्राप्त करना उचित है।
अनुबंध :अगले सूत्र में अनुभव न होने वाले शिक्षक या अन्य स्त्रोत की उपेक्षा की है।
सूत्र १६.२: बहुत शिक्षित होनेपर भी अनुभव न होनेवाले शिक्षक से योगविद्या ग्रहण नहीं करनी चाहिये।
अनुबंध:अगला सूत्र योग शिक्षक और गुरु इनमें भेद करता है।
सूत्र १६.३:योगशिक्षक और आध्यात्मिक गुरु इनमें विभिन्नता होती है।
अनुबंध :अगला सूत्र यह विधान करता है कि योगशिक्षक अनेक हो सकते है किंतु आध्यात्मिक गुरु एक ही होता है।
सूत्र १६.४ :साधारणत: योग विद्यार्थि ने किसी भी एक या अनेक अनुभवी स्त्रोतों से योग विद्या प्राप्त करनी चाहिए। परंतु केवल तीव्र आध्यात्मिक योगसाधना के विषय में एकहि गुरु होना चाहिए।
अनुबंध :अनेक अनुभवी शिक्षकों की उपयोगिता वर्णन करने के पश्चात् अगला सूत्र योगसाधना के लक्ष्य को सिध्द करने वाली अनेको साधना ओं की पुष्टी करता है।
सूत्र १६.५:योगसाधक को तर्क, अनुभव इत्यादि पर आधारित किसी भी स्त्रोत से प्राप्त ज्ञान को स्वीकार करना चाहिए। किसी एवं अपूर्ण ज्ञान वाले स्त्रोत पर अतिश्रद्धा नहीं करनी चाहिए।
अनुबंध :अगला सूत्र योगसाधना में प्रगति करने के लिए उपाय बताता है।
सूत्र १६.६:योगसाधना में सत्वर प्रगति होनेका सर्वोत्तम उपाय : एकनिष्ठ योगसाधकोका संग और अनुभव संपन्न योग शिक्षकों का सहवास।
अनुबंध :अगला प्रकरण योग साधना करने के रिती और स्वरुप वर्णन करता है।
सूत्र १७.१: योगाभ्यास की योजना किसी निश्चित ध्येयकी प्राप्ती के लिये करना चाहिये और उसको ध्येयप्राप्ती तक जारी रखना चाहिये। तत्पश्चात दुसरा ध्येय और उसके प्राप्ती के लिये योजना बनाना चाहिये।
अनुबंध :बहुत कम लोग योगाभ्यास का स्वीकार तथा उसमें सातत्य रखते है। इसका कारण अगले सूत्र में दिया है।
सूत्र १७.२: योग विषय, उसकी क्रिया तथा फायदे इनको भलीभाँति जानते हुए भी बहुत ही कम लोग प्रत्यक्ष योगाभ्यास करते है। इसके मुख्य दो कारन है। मन का चांचल्य और शिस्त का अभाव।
अनुबंध :अगला सूत्र योगाभ्यास के सर्वोच्च दो अंग वर्णन करता है।
सूत्र १७.३:योगाभ्यास में समय भौतिक जगत के लगाव से बाधा आती है। योगाभ्यास से जुड़े रहने को अभ्यास कहते है। और भौतिक जगत से लगाव न रखने को वैराग्य कहते है।
अनुबंध :अगला सूत्र आध्यात्मिक योगविद्यार्थी के लिए सबसे बड़ी तीन बाधाएँ वर्णन करता है।
सूत्र १७.४:आध्यात्मिक योगविद्यार्थी के लिए कामवासना, पैसा और समाज में कितीँ की इच्छा, ये तीन सबसे बड़ी और एक से एक बडी बाधाएँ होती है।
अनुबंध :अगला सूत्र योगाभ्यास की रचना सोच-विचार से करने की सलाह देता है।
सूत्र १७.५:योगाभ्यास की रचना सोच-विचार से करनी चाहिए।
अनुबंध :अगला सूत्र योगाभ्यास में सातत्य और स्थिरता की सलाह देता है।
सूत्र :१७.६:एक योगाभ्यास पर्याप्त काल तक जारी रखना चाहिए। केवल विद्यमान लक्ष्य के प्राप्ति के पश्चात नूतन लक्ष्यानुसार ही बदलना चाहिए।
अनुबंध :अगला सूत्र योगविद्यार्थी की अंतिम योगाभ्यासपद्धती, जिसको 'मार्ग' कहते है उसका वर्णन करता है।
सूत्र १७.७:अंतिम चरण में योगाभ्यास की रचना कभी बदलती नहीं। वही विद्यार्थी का मार्ग है। 'मार्ग' का अर्थ कभी न बदलने वाला योगाभ्यास।
अनुबंध :अगला सूत्र तीव्र आध्यात्मिक योगविद्यार्थी के लिए सूचना देता है।
सूत्र १७.८:तीव्र आध्यात्मिक योगविद्यार्थी को अपना 'मार्ग' जल्दी खोजना चाहिए और उससे ही जुड़े रहना चाहिए। यह अतिशय महत्त्वपूर्ण है।
अनुबंध: अगले प्रकरणमे कुछ विचारोंका मिश्रण है।
सूत्र ८.१: एक दिनका पूरा योगाभ्यास एकसाथ कारनेके बजाय, उतना योगाभ्यास दिनमे थोडा थोडा करना अधिक लाभदायी होता है।
अनुबंध :अगला सूत्र योग व हिंदुत्व का संबंध दर्शाता है।
सूत्र १८.२:योग का संबंध हिंदुधर्म से है इसमें कुछ संशय नहीं। किंतु विना किसी धर्म का पालन करते हुए योग का काफी अभ्यास किया जा सकता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में योगसाधक के लिए वैवाहिक जीवन की सलाह दी है।
सूत्र १८.३: योगसाधक ने वैवाहिक जीवन अथवा उसके उचित विकल्प का आचरण करना चाहिए।
अनुबंध :अगला सूत्र योगसाधक के बारे में किसी संस्था ने बनायें नियमों की निंदा करता है।
सूत्र १८.४: तत्वत: योग आध्यात्मिक साधना होती है। इसलिए कोई कानून या शासकीय नियम योगाभ्यास, योगसाधक तथा योग शिक्षकों के बारेमें नहीं होना चाहिए। सिर्फ जहा समाज हानी नहीं होती है वहा नियम करना चाहिये।
अनुबंध :अगला सूत्र योगसाधक के लिए समय तथा पैसे का महत्त्व दर्शाता है।
सूत्र :१८.५: योगसाधक के लिए पर्याप्त समय तथा धन अत्यावश्यक हैं, जिससे लक्ष्यपूर्ति कारक योगाभ्यास के लिए पर्याप्त समय दिया जा सके।
अनुबंध :समय तथा धन की आवश्यकता दिखाने के पश्चात अगला सूत्र धन तथा व्यक्तिगत जरुरतों के बारे में स्वावलंबन का महत्त्व दर्शाता है।
सूत्र १८.६: आजके जमाने में योगसाधक को धन तथा व्यक्तिगत जरुरतों के बारे में स्वावलंबी होना चाहिए।
अनुभव :अगला सूत्र इस ग्रंथ का अंतिम सूत्र है। उसमें पूरे विश्व की शांति तथा आनंद के लिए प्रार्थना की है।
सूत्र १८.७: संपूर्ण विश्व में शांती तथा आनंद हो ।
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