सूत्र १.१: प्रत्येक मनुष्य स्वभावासेही सुखकी खोजमे रहता है l
सूत्र १.२: मानसिक अवस्थानुसार, मानवके सुखकी खोज शरीर, मन अथवा इंद्रियातीत अवस्थाकें द्वारा होती है l
सूत्र १.३: शारीरिक इंद्रियोद्वारा प्राप्त सुख शारीरिक तथा मानसिक दोनो प्रकारके स्वस्योपर निर्भर होता है l
सूत्र १.४: केवल मनके द्वारा प्राप्त सुख केवल मानसिक स्वास्थ्यपर निर्भर होता है l
सूत्र १.५: मन तथा इंद्रियोके परे प्राप्त सुख मानसिक स्वास्थ्य और अभ्यास-वैराग्य पर निर्भर होता है l सुखप्राप्ती के लिये आवश्यक कृतीया करते रहना यही अभ्यास है और बाधक कृतीया न करना वैराग्य है l
सूत्र १.६: भौतिक जगतमे प्रायः मानव शरीर तथा मानके द्वारा सुखकी खोजमे रहता है l इसलिये शारीरिक तथा मानसिक स्वस्थयोकी आवश्यकता होती है l
सूत्र १.७: परंतु, आध्यात्मिक जगतमे मानव मनके परे जाकर सुखकी खोज करता है l इस साधनाके लिये उच्च मानसिक स्वास्थ्यकी आवश्यकता होती है l एवं उच्च मानसिक स्वास्थ्यका विनियोग इंद्रियोके परे जानेमे होना चाहिये l इतानाही नही तो मनके कार्यको स्थगित करनेमे भी होना चाहिये l
सूत्र १.८: विविध प्रकारके सुखोकी प्राप्ती करते करते मानवके प्रयत्न तथा अनुभव सूक्ष्म बनते है l वैसेही सुखप्राप्तीके लक्ष्य भी निम्नस्तरसे उच्चस्तरपर जाते है l साधारणतः अध्यात्मिक लक्ष्यको सर्वोच्च स्थान, मानसिक लक्ष्यको माध्यम स्थान तथा शारीरिक लक्ष्य को निम्न स्थान दिया जाता है l
अनुबंध: प्रत्येक मानवकी स्वभावसे हि शरीर-मन द्वारा अथवा शरीर-मनके परे होनेवाली सुखकी खोज सिद्ध हुई है l मानव प्रत्यक्ष रूपमे सुखप्राप्ती कैसे करता है यह अगले प्रकरणमे वर्णन किया है l
सूत्र २.१: प्रत्येक व्यक्ति जीवनमे सुखप्राप्तीके लिये ध्येय बना लेती है l
सूत्र २.२: ध्येयप्राप्तिके लिये व्यक्तिको एक निश्चित कृतिक्रम बनाना पडता है l इस कृतिक्रममे इन चिजोका समावेश होता है: कठीनाईयोंका निवारण, शिस्त, ध्येयसाधनाके योग्य सामुग्री, ध्येयकी ओर ले जानेवाली साधना, साधनामे स्थिरता और ध्येयकी समयसमयपर पुनरावृत्ति l
सूत्र २.३: व्यक्तिगत ध्येयकी योग्यायोग्यता व्यक्तिगत पूर्वपीठिका, सद्य:परिस्थिति, साधनाके लिये प्राप्त समय और साधनाके साथ प्राप्त विश्रांति, इन अंगोपर निर्भर होता है l
अनुबंध: अगले प्रकरणमे सूत्रकार अधियोगपद्धतीपर प्रकाश डालता है l और उसकी अभिजातयोग्यपद्धतिके साथ तुलना करता है l
सूत्र ३.१: अभिजातयोगपद्धति शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य एवं क्षमता प्राप्तके साधनोकी उपलब्धि कराती है l किंतु उनका उद्देश्य समाधि एवं कैवल्य, अर्थात पारमार्थिक ध्येय होता है l
सूत्र ३.२: इसके विपरीत, अधियोगपध्दति व्यक्तिगत ध्येयकी प्राप्तिके लिये है l वह ध्येय शारीरिक हो, मानसिक हो, या पारमार्थिक हो, या इन तीनोका कैसा भी मिश्रण हो l
सूत्र ३.३: अधियोगपध्दतिमे दिये हुए शारीरिक, मानसिक, तथा पारमार्थिक स्वास्थ्य एवं क्षमता प्राप्तिके साधन व्यक्तिगत ध्येयप्राप्तिके लिये निश्चयही आवश्यक होते है l
सूत्र ३.४: इसके अलावा, अधियोगपध्दतिमे पारंपरिक तथा वर्तमानमे प्रचलित योगपद्धतियोंके दोषो तथा त्रुटीयोका निवारण करनेकी चेष्टा होती है l अधियोगपध्दति यह व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्तिके लिये बनायी हुई योगाभ्यास तथा योगध्यापनकी अभिनव पद्धति है l
अनुबंध: अगले प्रकरणमे शरीर-मन-आत्मा संकुल स्पष्ट रुपसे वर्णन किया है l
सूत्र ४.१: शरीरका अर्थ मानवीय जीवनसंस्थाके उन भागोंका समूह की जो भाग श्रवण, दृष्टी, गंध, स्वाद तथा स्पर्श इनसे ज्ञात होते हैं।
अनुबंध : अगला सूत्र 'मन' की अधियोगपद्धतिके अनुसार व्याख्या करता है।
सूत्र ४.२: मन इसका अर्थ जीवनसंस्थाके उन भागोंका समूह की जो भाग ज्ञात होते तो हैं, किंतु पाँच इंद्रियोंद्वारा नहीं। मन केवल मनके द्वारा हि ज्ञात होता है। मनको छठा इंद्रिय माना जाता है।
अनुबंध : अगले दो सूत्र 'आत्मा' का अस्तित्व दिखलाते है , जो कि शरीर और मन के परे है।
सूत्र ४.३: पुरुष का अर्थ वह पहचान जो पाँचों इंद्रिय और मनके द्वारा ज्ञात नहीं हो सकती।
सूत्र ४.४: पुरुष नित्य होता है। किंतु, शरीर तथा मन कालानुरुप प्रतिक्षण बदलते रहते है। अनुबंध :अगला सूत्र अत्यंत महत्वपूर्ण धारणा 'कर्म ' की व्याख्या करके शरीर-मन-आत्मा संकुल का निर्माण वर्णन करता है। सूत्र ४.५: जब मनुष्य फल पर आसक्ति से कार्य करता है, तब वह कार्य 'कर्म ' को निर्माण करता है l कर्म से जुडा हुआ पुरुष मन तथा शरीर के संकुल में संबद्ध हो जाता है।
अनुबंध: शरीर, मन और आत्मा इनकी व्याख्या करने के बाद उनका व्यक्ति के कार्योंसे संबंध अगली चार सूत्र में स्थापित किया है।
सूत्र ४.६: मनुष्यों के सभी कार्यों में मन की आवश्यकता होती है। उन कार्यों में से कुछ कार्यो में शरीर की भी आवश्यकता होती है। ये शारीरिक कार्य कहलाते हैं।
सूत्र ४.७: अन्य कही कार्यो में मुख्यतः मन की किंतु शरीर की अत्यल्प आवश्यकता होती है। ये मानसिक कार्य कहलाते हैं।
सूत्र ४.८: कुछ कुछ कार्यो में मन और शरीर दोनोकी समान रूपसे आवश्यकता होती है।
सूत्र ४.९: इसी कारण, व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्तिके लिए अलग अलग मात्रा में, अलग अलग प्रकार के शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थोंकी एवं क्षमताओंकी आवश्यकता होती है।
अनुबंध: अगला सूत्र यह प्रतिज्ञा करता है, की अधियोगपद्धति सभी प्रकार के स्वास्थ्य एवं क्षमता के साधन प्रदान करती है।
सूत्र ४.१०: अधियोगपद्धति व्यक्तिगत लक्ष्यप्राप्तिके लिए आवश्यक शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक स्वास्थोंके और क्षमताओं के प्राप्ति के साधन सिखाती है।
अनुबंध :अगला सूत्र यह निवेदन करता है कि अभिजातयोगपद्धतिका उद्देश्य केवल आध्यात्मिक स्वास्थ्य एवं क्षमता यही है।
सूत्र ४.११: पारंपरिक योगपद्धति शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यों के लिए अत्यावश्यक नहीं है। वह तो आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए होती है।
अनुबंध :अगले प्रकरण में विश्व की रचना का तथा उसमें स्थित प्राणियों का वर्णन करके विश्व के बन्धनसे जीवकी मुक्ति करने में 'योग ' का स्थान बताया है।
सूत्र ५.१: ईश्वर या परमेश्वर एक विशेष पुरुष है जो जगतसे पूर्णतया स्वतंत्र है , आपि तु प्रत्येक प्राणिमात्रमे पुरुष के रूप मी प्रतिबिंबित रहता है l व्यक्तिगत पुरुष जगतसे बद्ध होता है और योगाभ्यासके माध्यमसे मुक्त हो सकता है l ईश्वर जगतमे व्याप्त होकार भी जगतसे बद्ध नाही होता l
सूत्र ५.२: प्रकृतिका अर्थ सत्त्व, रजस और तामस इन तीन गुणोसे बना हुआ जगत l प्रकृतिमे सर्व पुरुषो और ईश्वर को छोडकर सर्व सजीव और सर्व निर्जीव वस्तुमात्र का समावेश होता है l
सूत्र ५.३: ईश्वर जैसे प्रकृति एवं सर्व पुरुषोका निर्माता और स्वामी है l
सूत्र ५.४: व्यक्तिगत पुरुष वासनाजनित कर्मसे जगतसे बंधा होता है l परंतु, कैवल्य को प्राप्त हुए सिद्धयोगीका पुरुष इस बंधनसे मुक्त हो जाता है l
अनुबंध: अगले प्रकरणमे ह्म शरीर-मन-आत्मा संकुलके स्वास्थ्यकी चर्चा करेंगे, जो की व्यक्तिगत ध्येयकी प्राप्ति तथा उससे जनित सुखके लिये अत्यावश्यक है l
सूत्र ६.१: स्वास्थ्य इसका अर्थ उत्तम सुस्थिती यह शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक इनमेसे एक या अनेकोंका मिश्रण होता है।
अनुबंध :स्वास्थ्य की पर्याप्त व्याख्या देने पश्चात अगले सूत्र में स्वास्थ्य के प्रमुख निर्णायक तथा स्वास्थ्य के प्रक्रिया में रोगावस्था के स्थान का वर्णन किया है।
सूत्र ६.२: उत्तम सुस्थिती दों बातों पर निर्भर होती है। एक, जीवनसंस्था की उत्तम निर्मलता प्रक्रिया और दो, केवल जीवनाश्यक घटकों की प्राप्ति।जब जीवनसंस्था सामान्य निर्मलता प्रक्रियों से निर्मल नहीं रहती, तब जीवनसंस्था स्वयं ही शीघ्र निर्मलता प्रक्रिया आरंभ करती है। इस, निर्मलता प्रक्रिया को 'रोग' कहते है। रोग स्वयं सुस्थिती में जाने का उपाय है।
अनुबंध: अगले सूत्र मे अन्न की व्याख्या की हैl
सूत्र ६.३ :अन्न इसका अर्थ जीवनसंस्था में बाहर से ली हुई कौनसी भी वस्तु। जैसे हवा, पेय, खाद्यपदार्थ, विचार, संवेदना, इत्यादि। पोषण इसका अर्थ अन्न का जीवनसंस्था में रूपांतर होना। पोषण होने के बिना अन्न वह कितना भी अच्छा अन्न हो, निरूपयुक्त होता है। इतना ही नहीं तो कभी कभार हानिकारक भी होता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में रोगावस्था के समय अन्न और पोषण इनकी स्थिती दिखाई है। और विश्राम की व्याख्या की है।
सूत्र ६.४: रोगावस्था में पोषणक्रिया अंत्यत क्षीण बनती है। इसलिए स्वास्थ्यकाल में हितकारक अन्न भी रोगावस्था में प्राय: अयोग्य होता है। रोग के माध्यम से जीवनसंस्थाने शुरू की हुए निर्मलता प्रक्रिया सक्षम होने के लिए अन्य क्रियाएँ कम से कम होनी चाहिए। इसको विश्राम कहते हैं।
अनुबंध :अगले सूत्र में रोग से पीड़ित व्यक्ति के लिए आवश्यक उपचार का वर्णन किया है।
सूत्र ६.५: रोग से मुक्त होना यह उपचार का परिणाम समझते है। करीब सभी रोगावस्था में "कुछ भी न करना" यह सर्वोत्तम उपाय होता है। कभी कभार शस्त्रक्रिया और स्वानुभवी मार्गदर्शक इन दोनो की आवश्यकता पड़ती है।
अनुबंध :अगले सूत्र में निरूपयुक्त अन्न को विष कहा है।
सूत्र ६.६: विष इसका अर्थ शारीरिक संस्था के लिए स्वास्थ्य काल में निरूपयोगी तथा हानिकारक ऐसा कोई भी पदार्थ। जो पदार्थ स्वास्थ्यकाल में निरूपयोगी होता है वह बिमारी में कभी भी उपयुक्त नहीं हो सकता। परंतु, कभी कभार स्वास्थ्यकाल में उपयुक्त ऐसा पदार्थ भी बिमारी में निरूपयुक्त सिद्ध होता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में औषधी से होने वाली हानी का वर्णन किया है।
सूत्र ६.७: औषध इसका अर्थ दिव्य वनस्पती । औषध के प्रयोग से रोग के लक्षण गुप्त होते है। किंतु रोग का मूल कारण कभी भी दूर नहीं होता। औषध से अल्पकालिन आराम मिलता है। परंतु हमेशा स्वास्थकी विशेषतः मज़्जासंस्था की हानी होती है।
अनुबंध : अगले सूत्र में यह वर्णन हे की हमें स्वास्थ्य प्रदान करने वाले आचरण का स्वीकार करना चाहिए, जिससे निसर्ग आपने आप स्वास्थ्य की रक्षा करेगा।
सूत्र ६.८: संच देखा जाए तो हम सभ स्वभावसेही स्वास्थ्यपरायण होते है। क्योंकि हमारी प्रत्येक अणुरेणू प्रतिक्षण स्वस्थ रहने की चेष्टा करता है। किंतु हमें उच्चतम स्वास्थ्य प्रदान करनेवाले परिणामकारक आचरणकी आवश्यकता है।
अनुबंध :अगले सूत्र में स्वास्थ्यकारक आचरण न करने का परिणाम बताया है।
सूत्र ६.९: जब स्वास्थ्यकारक आचरण की उपेक्षा होती है तब रोग का उद्भव होता है। रोग यह भी एक प्रकार से किंतु नकारार्थ में स्वास्थ्य का ही रूप है। रोग सच्चे स्वास्थ्य की दिशा दिखलाता है।
अनुबंध : उच्चतम स्वास्थ्य प्राप्ति के साधन कौन से है? यह अगले सूत्र में बताया है।
सूत्र ६.१०: स्वास्थ्य की प्राप्ति केवल स्वास्थ्यकारक आदतोंसेही होती है। अधियोगपद्धती में सर्व प्रकार के स्वास्थ्यप्राप्ति करने के उपाय वर्णन किये है।
अनुबंध :अगले सूत्र में योगसाधना का उद्देश्य शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य के रूप में वर्णन किया है।
सूत्र ६.११: योग साधना का मुख्य उद्देश्य मानसिक स्वास्थ्य होता है। मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ मनकी शांति और बुद्धि की स्थिरता। शारीरिक स्वास्थ्य, जो की कभी कभार पूर्ण स्वास्थ्य से जुडा जाता है, उसका उपयोग मानसिक स्वास्थ्य प्राप्ति के लिए करना चाहिए। आध्यात्मिक स्वास्थ्य अंतिम ध्येय है। मानसिक स्वास्थ्य उसका प्रमुख साधन है और शारीरिक स्वास्थ्य साधन सामग्री है।
अनुबंध : अगला सूत्र उच्चतम शारीरिक स्वास्थ्य के उपाय वर्णन करता है।
सूत्र ६.१२: सर्वोत्तम शारीरिक स्वास्थ्य के उपाय : शुद्ध हवा, शुद्ध पानी, युक्तहार, आंतरबाह्य स्वच्छता, उचित प्रकार का और उचित प्रमाण में व्यायाम, उचित प्रमाण में विश्राम तथा नींद. उचित प्रमाण में सूर्यप्रकाशसेवन, सुयोस्य तपमान, और भावनाओंमें संतुलन।
अनुबंध :अगला सूत्र उच्चतम मानसिक स्वास्थ्य के उपाय वर्णन करता है।
सूत्र ६.१३ :सर्वोत्तम मानसिक स्वास्थ्य के उपाय : पर्याप्त शारीरिक स्वास्थ्य शारीरिक स्वास्थ्य, श्वासोच्छवास में स्थिरता, इंद्रियोंका संयमन और ध्यानसाधना।
अनुबंध : अगला सूत्र परिपूर्ण आध्यात्मिक स्वास्थ्य के उपाय वर्णन करता है।
सूत्र ६.१४ : परिपूर्ण आध्यात्मिक स्वास्थ्य के उपाय : पर्याप्त शारीरिक स्वास्थ्य, पर्याप्त मानसिक स्वास्थ्य और ईश्वर शरणागती।
अनुबंध :अगला सूत्र यह विधान करता है कि परिपूर्णता की संभावना केवल आध्यात्मिक स्वास्थ्य में होती है, शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्यों में नहीं।
सूत्र ६.१५: शारीरिक स्वास्थ्य में परिपूर्णता अशक्य होती हे और इसी कारण आखिर मृत्यू होती है। मानसिक स्वास्थ्य में परिपूर्णता अशक्य होती हे और इसी कारण ज्ञान अधूरा रहता है।आध्यात्मिक स्वास्थ्य में परिपूर्णता संभव होती है और उसकी परिणती संपूर्ण ईश्वर शरणागती मे होती है।
अनुबंध :अगले सूत्र में परिपूर्ण आध्यात्मिक स्वास्थ्य और ईश्वर शरणागती की एकता सिद्ध करके उसको मानवीय जीवन का अंतिम उद्देश्य बताया है।
सूत्र ६.१६ :आध्यात्मिक स्वास्थ्य की परिपूर्णता, संपूर्ण ईश्वर शरणागती, योगसिद्धावस्था, अखंड आनंद ये सब आवस्थाएँ एक ही है। एक दृष्टी से यही मानवीय जीवन का प्रमुख प्रयोजन है।
अनुबंध : स्वास्थ्य का सखोल विवेचन करने के पश्चात अगले प्रकरण में क्षमता का विवेचन किया है।
सूत्र ७.१: क्षमत्व का अर्थ किसी भी कार्य करने की विद्यमान शक्ति ।
अनुबंध :अगले सूत्र में स्वास्थ्य और क्षमत्व इनका संबंध वर्णन किया है।
सूत्र ७.२: क्षमत्व और स्वास्थ्य इनका परस्पर संबंध जरुर होता है। परंतु वे दोनो एक नहीं होते। और एक की विद्यमानता दुसरे की विद्यमानता सिद्ध नहीं कर सकती।
अनुबंध :अगले सूत्र में क्षमत्व प्राप्ति का साधन बतलाया है।
सूत्र ७.३:पोषण और विश्राम के साथ समुचित व्यायाम लेनेसे क्षमत्व प्राप्त होता है।
अनुबंध :क्षमत्व और स्वास्थ्य दोंनो विश्राम पर निर्भर होते है। इसलिए अगले प्रकरण में विश्राम का विवेचन किया है।
सूत्र ८.१:किसी शरीरके या मनू के अंग के कार्य का स्वेच्छासे से किया हुआ अभाव उस शरीर या मन के अंग का विश्राम है।
सूत्र ८.२:स्वैच्छिक शारीरिक संस्था का सर्वाधिक विश्राम स्वप्नरहित निद्रा के समय होता है।
सूत्र ८.३:अनैच्छिक शारीरिक संस्था का सर्वाधिक विश्राम उस शारीरिक संस्था से संबंधित कार्य की आवश्यकता को निम्नतम करने से होता है।
सूत्र ८.४: मानसिक संस्था का सर्वाधिक विश्राम स्वप्नरहित निद्रा और मनकी समाधि स्थिति में होता है।
अनुबंध : विश्राम की चर्चा में उपवासनामक विश्राम का विशेष रूप से वर्णन अगले सूत्र में किया है। क्योंकि स्वास्थ के पुनर्वसन में उपवासकी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
सूत्र ८.५: शारीरिक कार्य संस्था का सर्वाधिक विश्राम उपवास के समय होता है। उपवास का अर्थ :खाद्यपदार्थ न खाना, केवल शुद्ध पानी ग्रहण करना, और शारीरिक तथा मानसिक कार्य कम से कम करना।
अनुबंध : स्वास्थ्य का अंतिम ध्येय 'आत्मानुभूति' होती है और वह अनुभूति मनकी समाधि अवस्था में होती है। इसलिए, अगले सूत्र में स्वप्नरहित निद्रा (विश्राम की महत्वपूर्ण अंग) का समाधि के साथ होनेवाला संबंध दिया है।
सूत्र ८.६: स्वप्न रहित निद्रा समाधि के सदृश होती है। परंतु वह अनैच्छिक होती है समाधि की प्राप्ति योगसाधना से होती है, किंतु निद्रा विनासायास होती है।
अनुबंध :स्वास्थ्य तथा क्षमत्व प्राप्त करने में विश्राम और पोषण का महत्व वर्णन करने के पश्चात अगले प्रकरण व्यायाम की चर्चा की है जो भी स्वास्थ्य तथा क्षमता प्राप्ति का महत्वपूर्ण अंग है।
सूत्र ९.१ :व्यायाम का अर्थ कौनसी भी क्रिया विद्यमान क्षमता से थोडीसी अधिक मात्रा में करना। जब क्रिया क्षमता से अत्यधिक मात्रा में होती है, उसका परिणाम तनाव होता है। जब क्रिया विद्यमान क्षमता के समतुल्य होती है, क्षमता विद्यमान मात्रा में ही रहती और उसमें सुधार नहीं होता। जब क्रिया विद्यमान क्षमता से कम मात्रा में होती है, उस में धीरे-धीरे घट होती है।
अनुबंध : व्यायाम की व्याख्या के पश्चात अगले सूत्र में योगव्यायाम को लक्ष्य बनाया है।
सूत्र ९.२: जब व्यायाम मनकी एकत्रता से तथा जीवनसंस्था के निर्धारित विभाग को सुधारने के लिए किया जाता है, वह योगव्यायाम कहलाता है। सब प्रकार के योगव्यायाम में मनकी एकाग्रता आवश्यक होती है।
अनुबंध :अगला सूत्र यह विधान करता है कि शारीरिक क्षमता के लिए योगव्यायाम अत्यावश्यक नहीं होता।
सूत्र ९.३: शारीरिक क्षमत्व के लिए योगव्यायाम उपकारक होता है, न की अत्यावश्यक।
अनुबंध : शारीरिक क्षमता के लिए योगव्यायाम की अत्यावश्यकता नहीं होती इस विधान के पश्चात अगला सूत्र मानसिक क्षमता के लिए समान विधान करता है।
सूत्र ९.४: मानसिक क्षमता के लिए अभिजात योगव्यायाम उपकारक होता है न कि अत्यावश्यक।
अनुबंध : अगले सूत्र में पारंपरिक हठयोग नये तरीकेसे बताया है।
सूत्र १०.१: मन की एकाग्रता के साथ किया हुआ कोई भी व्यायाम योगव्यायाम है। शारीरिक योगव्यायाम क्षमत्व, स्वास्थ्य तनाव - निवारण और ध्यानावश्यक एकाग्रता पाने के लिए किया जाता है। शारीरिक योगव्यायामसे प्राथमिक ध्यान का प्रारंभ होता है।
अनुबंध :अगला सूत्र शारीरिक योगव्यायाम की व्याख्या करता है।
सूत्र १०.२:
शारीरिक योगव्यायाम का अर्थ : निर्धारित शारीरिक अवयवों के कार्यों को जैसे हलचल, मज्जा शक्ति बल रासायन प्रक्रिया इत्यादि विद्यमान क्षमता से ज्यादा करना। प्रयास की मात्रा विद्यमान क्षमता से न तो बहुत कम होनी चाहिए, न तो बहुत अधिक।
अनुबंध :अगला सूत्र शारीरिक व्यायाम के अत्यावश्यक अंग वर्णन करता है।
सूत्र १०.३: शारीरिक योगव्यायाम सफल होने के लिए उचित पोषण तथा पर्याप्त विश्राम अत्यावश्यक होते है।
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